गुरू श्री जम्भेश्वर बिश्नोई पंथ के संस्थापक थे। वे जाम्भोजी के नाम से भी जाने जाते है। इन्होंने विक्रमी संवत् 1542 सन 1485 मे बिश्नोई पंथ की स्थापना की। 'हरि' नाम का वाचन किया करते थे। हरि भगवान विष्णु का एक नाम हैं। बिश्नोई शब्द मूल रूप से निकला है, जिसका अर्थ है '29 नियमों का पालन करने वाला'। गुरु जम्भेश्वर का मानना था कि भगवान सर्वत्र है। वे हमेशा पेड़ पौधों वन एवं वन्यजीवों सभी जानवरों और पृथ्वी पर चराचर सभी जीव जंतुओं की रक्षा करने का संदेश देते थे। इन्होंंनेे स्त्री पुरुष में भेदभाव,जीव दया पालनी रूख लीलो नहीं घावे''को जीवों कि हत्या पेड़ पौधों की कटाई ,नशे पत्ते जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर किया एवं स्वच्छता को बढ़ावा दिया करते थे। हरे वृक्षों को काटने एवं चराचर जगत के जीव जन्तु किट पतंगें सभी जीवों कि हत्या को पाप मानते थें। शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करने कि बात समझाते थें।
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गुरु जम्भेश्वर | |
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श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान | |
संबंध | बिश्नोई संप्रदाय |
प्रमुख पंथ केंद्र | मुकाम, समराथल धोरा, जाम्भोलाव धाम, पीपासर, सालासर,जांगलू,रोटू, लालासर साथरी,रामड़ावास,लोदीपुरआदि। |
मंत्र | "विष्णु विष्णु तू भण रे प्राणी" |
पशु | सभी तरह के वन्यजीव जंतु पशु पक्षी |
माता-पिता | लोहटजी पंवार और माता हंसा बाई भुआ = तांतु बाई चाचा= पुल्होजी ( जिनको जाम्भोजी ने सर्वप्रथम विश्नोई पंथ में अभिमंत्रित पाहल से दीक्षित किया) ननिहाल = तालछापर (चूरू) |
क्षेत्र | बीकानेर राजस्थान , भारत |
समुदाय | परमार |
त्यौहार | जम्भेश्वर महाराज जन्माष्टमी प्रत्येक माह अमावस्या व्रत एवं प्रमुख(होली पाहल) |
इनका जन्म राजस्थान के नागौर परगने के पीपासर गांव में एक ठाकुर राजपूत परिवार में विक्रमी संवत् -1508 सन-1451भादवा वदीअष्टमी को अर्धरात्रि कृतिका नक्षत्र में हुआ था।
जाम्भोजी का जन्म एक ठाकुर राजपूत परिवार में विक्रमी संवत् 1508 सन् 1451 भादवा वदी अष्टमी जन्माष्टमी को अर्धरात्रि कृतिका नक्षत्र में हुआ था। इनके पिताजी का नाम ठाकुर लोहट जी पंवार तथा माता का नाम हंसा कंवर (केसर) था, यह अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थे। जाम्भोजी अपने जीवन के शुरुआती 7 वर्षों तक कुछ भी नहीं बोले थे तथा न ही इनके चेहरे पर हंसी रहती थीं । 7 वर्ष बाद इन्होंने विक्रमी संवत् 1515 सन 1458 को भादवा वदी अष्टमी के दिन ही अपना मौन तोड़ा और सबसे पहला शब्द (गुरू चिन्हों गुरु चिन्ह पुरोहित गुरुमुख धर्म बखानी) उच्चारण किया। इन्होंने 27 वर्ष तक गौपालन किया। इसी बीच इनके पिता लोहाट जी पंवार और उनकी माता हंसा कंवर की मृत्यु हो गई तो इन्होंने अपनी सारी संपत्ति जनहित में दान कर दी और आप निश्चित रूप से समराथल धोरे पर विराजमान हो गए गुरु श्री जम्भेश्वर भगवान ने विक्रमी संवत 1542 सन 1485 में 34 वर्ष की अवस्था में बीकानेर राज्य के समराथल धोरे पर कार्तिक वदी अष्टमी को पाहल बनाकर बिश्नोई पंथ की स्थापना की थी।इन्होंने शब्दवाणी के माध्यम से संदेश दिए थे, इन्होंने अगले 51 वर्ष तक में पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया और ज्ञानोपदेश दिया।गुरु जंभेश्वर भगवान ने छुआछूत ,जात पात ,स्त्री पुरुष में भेदभाव, पेड़ पौधों की कटाई ,जीव हत्या एवं किसी प्रकार कि नशे क प्रवृत्ति जैसी सामाजिक कुरीतियोंं को दूर किया वर्तमान में गुरु उपदेश दिये वो शब्दवाणी में 120 शब्द के रूप में मौजूद है।बिश्नोई समाज के लोग 29 धर्मादेश (नियमों) का पालन करते है यह धर्मादेश गुरु श्री जम्भेश्वर भगवान ने ही दिए थे। इन 29 नियमों में से 8 नियम जैव वैविध्य तथा जानवरों की रक्षा के लिए है , 7 धर्मादेश समाज कि रक्षा के लिए है। इनके अलावा 10 उपदेश खुद की सुरक्षा और अच्छे स्वास्थ्य के लिए है और बाकी के चार धर्मादेश आध्यात्मिक उत्थान के लिए हैं जिसमें भगवान को याद करना और पूजा-पाठ करना। बिश्नोई समाज का हर साल मुक्तिधाम मुकाम में मेला भरता है जहां लाखों की संख्या में बिश्नोई समुदाय के दर्शनार्थी लोग आते हैं। गुरु जी ने जिस बिश्नोई धर्म समाज कि स्वतंत्र स्थापना की थी उस 'बिश' का मतलब 20 और नोई का मतलब 9 होता है इनको मिलाने पर 29 होते है बिश+नोई=बिश्नोई/अर्थात बिश्नोई यानी 29 नियमों को मानने वाला। बिश्नोई संप्रदाय के लोग खेजड़ी (Prosopis cineraria) को अपना पवित्र पेड़ मानते हैं।
हर अमावस के दिन जंभेश्वर भगवान के मंदिर में और बिश्नोई समाज के घरों में हर रोज सुबह गाय के शुद्ध देसी घी, नारियल, हवन सामग्री के द्वारा हवन किया जाता हैं।इससे वातावरण शुद्ध होता है वायुप्रदूषण कम होती है और यह वायु में उपस्थित हानिकारक तत्वों को कम करता है।
गुरु जम्भेश्वर भगवान (जाम्भोजी) का जन्म राजस्थान के नागौर ज़िले के पीपासर गांव में विक्रमी संवत 1508 सन 1451 मैं भादवा वदीअष्टमी जन्माष्टमी (अर्धरात्रि कृतिका नक्षत्र में) के दिन एक ठाकुर राजपूत किसान परिवार में हुआ था।भगवान कृष्ण का भी जन्म उसी तिथि को हुआ था। इनके बूढ़े पिता लोहट जी की 50 वर्ष की आयु तक कोई संतान नहीं थीं इस कारण वे दुखी थे।लोहट जी के 51वें वर्ष में भगवान विष्णु नेे बाल संत के रूप में आकर लोहट की तपस्या से प्रसन्न होकर उनको पुत्र प्राप्ती का वचन दिया। जाम्भोजी ने अपने जन्म के बाद अपनी माँ का दूध नहीं पिया था। साथ ही जन्म के बाद 7 वर्ष तक मौन रहे थे। और 7 वर्ष बाद भादवा वदी अष्टमी के दिन हीअपना मौन तोड़ा। और जाम्भोजी ने अपना पहला शब्द (गुरु चिंहो गुरु चिन्ह पुरोहित) बोला था जम्भदेव सादा जीवन वाले थे लेकिन काफी प्रतिभाशाली थे साथ ही संत प्रवृति के कारण अकेला रहना पसंद करते थे। जाम्भोजी ने विवाह नहीं किया, इन्हें गौपालन प्रिय लगता था इन्होंने 27 वर्षों तक गायों की सेवा की थी इसी बीच इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई और उन्होंने अपनी संपत्ति जनकल्याण में लगा दी की और खुद समराथल धोरा पर निश्चित रूप से विराजमान हो गए इन्होने 34 वर्ष की आयु में समराथल धोरा नामक जगह पर उपदेश देने शुरू किये थे। ये समाज कल्याण की हमेशा अच्छी सोच रखते थे तथा हर दुःखी की मदद किया करते थे । इन्होंने स्त्री पुरुष में भेदभाव, पेड़ पौधोंं की कटाई, जीव हत्या, नशे पते जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर किया मारवाड़ में 1585 में अकाल पड़ने के कारण यहां के लोगों को अपने पशुओं को लेकर मालवा जाना पड़ा था, इससे जाम्भोजी बहुत दुःखी हुए। फिर जाम्भोजी ने उन दुःखी किसानों को यहीं पर रुकने को कहा बोलें कि मैं आप की यहीं पर सहायता करूँगा। इसी बीच गुरु जम्भेश्वरजी ने दैवीय शक्ति से सभी को भोजन तथाआवास स्थापित करने में सहायता की। हिन्दू धर्म के अनुसार वो काल निराशाजनक काल कहलाया था। उस वक़्त यहां पर आम जनों को बाहरी आक्रमणकारियों का बहुत भय था साथ ही लोग हिन्दू धर्म संस्कृति में विभिन्न देवी अनेकों देवताओं की मुर्तियां कि पूजा करते थे। इसलिए दुःखी लोगों की सहायता के लिए ईश्वर एक है के सिद्धांत पर गुरु जम्भेश्वर नेें विक्रमी संवत 1542 सन 1485 मेंं बीकानेर जिले के समराथल धोरे पर कार्तिक बदी अष्टमी को पाहल बनाकर स्वतंत्र बिश्नोई धर्म की स्थापना की।
श्री गुरु जंभेश्वर भगवान विक्रमी संवत् 1593 सन 1536 मिंगसर वदी नवमी ( चिलत नवमी ) को लालासर में निर्वाण को प्राप्त हुए ।श्री गुरु जंभेश्वर भगवान का समाधि स्थल मुकाम है।
जाम्भोजी ने अपने जीवनकाल में अनेक वचन कहे किन्तु अब 120 शब्द ही प्रचलन में हैं जो वर्तमान में शब्दवाणी के नाम से जाने जाते हैं। गुरु जम्भेश्वरजी द्वारा स्थापित बिश्नोई पंथ में 29 नियम प्रचलित हैं जो धर्म, नैतिकता, पर्यावरण और मानवीय मूल्यों से संबंधित हैं।
बिश्नोई धर्म स्वतंत्र रूप से एक अच्छे विचार वाला समुदाय है, इनका मुख्य व्यवसाय खेती है एवं पशु पालन हैं,बिश्नोई समाज की स्थापना गुरु जम्भेश्वर भगवान ने विक्रमी संवत 1542 सन 1485 में 34 वर्ष की अवस्था में बीकानेर जिले के समराथल धोरे पर कार्तिक वदी अष्ट को पाहल बनाकर की थी। गुुरू जंभेश्वर भगवान द्वारा बनाये गये 29 नियम का पालन करने पर इस समाज के 20 + 9 लोग = 29 (बीस+नौ) बिश्नोई कहलाये। अर्थात बिश्नोई समाज का अर्थ है '29 नियमों को धारण करने वाला' यह समाज वन्य जीवों को अपना सगा संबधी जैसा मानते है तथा उनकी रक्षा करते है। वन्य जीव रक्षा करते-करते कई लोग वीरगति को प्राप्त भी हुए है। यह समाज प्रकृति प्रेमी भी है। अधिकांश बिश्नोई जाट जाति से है।
खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष है
खेजड़ली एक गांव है जो राजस्थान के जोधपुर ज़िले में स्थित है यह दक्षिण-पूर्व से जोधपुर शहर से 26 किलोमीटर दूर है। खेजड़ली गांव का नाम खेजड़ी (Prosopis cineraria) पर रखा गया। तत्कालीन जोधपुर महाराजा अभय सिंह(1724-1749 ईसवीं) जी के मंत्री गिरधरदास जी ने अपने सैनिकों को चुना पकाने के लिए लकड़ी लाने का आदेश दिया वह सैनिक लकड़िया लेने के लिए खेजडली गाँव पहुंचे।
12 सितम्बर विक्रमी संवत 1787 सन 1730 में इस गांव में खेजड़ी को बचाने के लिए अमृता देवी बिश्नोई व उनके पति रामोजी वह उनकी तीन बेटियों सहित कुल 363 बिश्नोई समाज के लोगों ने (भगवान जांभोजी के बताए गए 29 नियमों में वर्णित एक नियम हरा वृक्ष नहीं काटना का अनुसरण करते हुए ) बलिदान दिया था। अमृता देवी ने कहा था कि " सिर साटे रुख रहे तो भी सस्ता जान" यह चिपको आंदोलन की पहली घटना थी जिसमें पेड़ों की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया गया।।चोरासी गांव के बिश्नोई समाज के लोग खेजड़ली बलिदान में शहीद होने के लिए शामिल हुए थे। बिश्नोई समाज के चोरासी गांवों का सामाजिक न्यायिक मुख्यालय खैजड़ली शहीद स्थल हैं।
यह एक ऐसा उदाहरण है जब लोग पर्यावरण का प और ग्लोबल वार्मिंग का ग नहीं जानते थे तब विश्नोई समाज ने पेड़ों को बचाने लिए इतनी बड़ी संख्या में बलिदान दिया।
363 शहीदों की याद में भाद्रपद शुक्ल दशमी को विशाल वन मेला भरता है ।
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