कर्पूरी ठाकुर: भारतीय राजनीतिज्ञ

कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी 1924 - 17 फरवरी 1988) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के दूसरे उपमुख्यमंत्री तथा दो बार मुख्यमंत्री थे। लोकप्रियता के कारण उन्हें 'जननायक' कहा जाता है। २३ जनवरी २०२४ को भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरान्त भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न से सम्मानित करने की घोषणा की है।

कर्पूरी ठाकुर
कर्पूरी ठाकुर: व्यक्तिगत जीवन, राजनीतिक जीवन, ईमानदार व्यक्तित्व
भारत के १९९१ के एक डाकटिकट पर कर्पूरी ठाकुर
पूर्वा धिकारी सत्येन्द्र नारायण सिन्हा

पूर्वा धिकारी दरोगा प्रसाद राय
उत्तरा धिकारी भोला पासवान शास्त्री
पद बहाल
24 जुन 1977 – 21 अप्रैल 1979
पूर्वा धिकारी जगन्नाथ मिश्र
उत्तरा धिकारी राम सुंदर दास

पद बहाल
5 मार्च 1967 – 31 जनवरी 1968
मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा
पूर्वा धिकारी अनुग्रह नारायण सिन्हा
उत्तरा धिकारी सुशील कुमार मोदी

पद बहाल
5 मार्च 1967 – 31 जनवरी 1968
उत्तरा धिकारी सतीश प्रसाद सिंह

जन्म 24 जनवरी 1924
पितौंझिया, बिहार और उड़ीसा प्रांत, ब्रिटिश इंडिया
मृत्यु 17 फ़रवरी 1988(1988-02-17) (उम्र 64)
पटना, बिहार, India
राजनीतिक दल सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय क्रांति दल, जनता पार्टी, लोकदल
व्यवसाय स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ
पुरस्कार/सम्मान कर्पूरी ठाकुर: व्यक्तिगत जीवन, राजनीतिक जीवन, ईमानदार व्यक्तित्व भारत रत्‍न (2024)

व्यक्तिगत जीवन

कर्पूरी ठाकुर का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन काल में समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गाँव, जिसे अब 'कर्पूरीग्राम' कहा जाता है, में नाई (ठाकुर)जाति में हुआ था। उनके पिताजी का नाम श्री गोकुल ठाकुर तथा माता जी का नाम श्रीमती रामदुलारी देवी था। इनके पिता गांव के सीमान्त किसान थे तथा अपने पारंपरिक पेशा बाल काटने का काम करते थे।

उन्होंने 1940 में मैट्रिक की परीक्षा पटना विश्‍वविद्यालय से द्वितीय श्रेणी में पास की। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ गया तो उसमें कूद पड़े। परिणामस्वरूप 26 महीने तक भागलपुर के कैंप जेल में जेल-यातना भुगतने के उपरांत 1945 में रिहा हुए। 1948 में आचार्य नरेन्द्रदेव एवं जयप्रकाश नारायण के समाजवादी दल में प्रादेशिक मंत्री बने। सन् 1967 के आम चुनाव में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संयुक्त समाजवादी दल (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) (संसोपा ) बड़ी ताकत के रूप में उभरी। 1970 में उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया। 1973-77 में वे लोकनायक जयप्रकाश के छात्र-आंदोलन से जुड़ गए। 1977 में समस्तीपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से सांसद बने। 24 जून, 1977 को पुनः मुख्यमंत्री बने। फिर 1980 में मध्यावधि चुनाव हुआ तो कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में लोक दल बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरा और कर्पूरी ठाकुर नेता बने।

कर्पूरी ठाकुर सदैव दलित, शोषित और वंचित वर्ग के उत्थान के लिए प्रयत्‍नशील रहे और संघर्ष करते रहे। उनका सादा जीवन, सरल स्वभाव, स्पष्‍ट विचार और अदम्य इच्छाशक्‍त‌ि बरबस ही लोगों को प्रभावित कर लेती थी और लोग उनके विराट व्यक्‍त‌ित्व के प्रति आकर्षित हो जाते थे। बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उसे प्रगति-पथ पर लाने और विकास को गति देने में उनके अपूर्व योगदान को सदैव स्मरण किया जाएगा।

कर्पूरी ठाकुर दूरदर्शी होने के साथ-साथ एक ओजस्वी वक्ता भी थे। आजादी के समय पटना की कृष्णा टॉकीज हॉल में छात्रों की सभा को संबोधित करते हुए एक क्रांतिकारी भाषण दिया कि "हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि केवल थूक फेंक देने से अंग्रेजी राज बह जाएगा" । इस भाषण के कारण उन्हें दण्ड भी झेलनी पड़ी थी।

वह देशवासियों को सदैव अपने अधिकारों को जानने के लिए जगाते रहे, वह कहते थे-

"संसद के विशेषाधिकार कायम रहें, अक्षुण रहें, आवश्यकतानुसार बढ़ते रहें। परंतु जनता के अधिकार भी। यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो जनता आज-न-कल संसद के विशेषाधिकारओं को चुनौती देगी"

कर्पूरी ठाकुर का चिर परिचित नारा था..

    सौ में नब्बे शोषित हैं,शोषितों ने ललकारा है।
    धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है॥

यह भी-

    अधिकार चाहो तो लड़ना सीखो
    पग पग पर अड़ना सीखो
    जीना है तो मरना सीखो।

वह जन नायक कहलाते हैं। सरल और सरस हृदय के राजनेता माने जाते थे। सामाजिक रूप से पिछड़ी किन्तु सेवा भाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में जन्म लेने वाले इस महानायक ने राजनीति को भी जन सेवा की भावना के साथ जिया। उनकी सेवा भावना के कारण ही उन्हें जन नायक कहा जाता था, वह सदा गरीबों के अधिकार के लिए लड़ते रहे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को 12 प्रतिशत आरक्षण दिया मुंगेरी लाल आयोग के तहत् दिए और 1978 में ये आरक्षण दिया था जिसमें 79 जातियां थी। इसमें पिछड़ा वर्ग के 12% और अति पिछड़ा वर्ग के 08% दिया था। उनका जीवन लोगों के लिया आदर्श से कम नहीं।

राजनीतिक जीवन

1977 में कर्पुरी ठाकुर ने बिहार के वरिष्ठतम नेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा से नेतापद का चुनाव जीता और दो बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। लोकनायक जय प्रकाश नारायण एवं समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया इनके राजनीतक गुरु थे। राम सेवक यादव एवं मधु लिमये जैसे दिग्गज साथी थे। लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, राम विलास पासवान और सुशील कुमार मोदी के राजनीतिक गुरु हैं। बिहार में पिछड़ा वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था 1977 में की । सत्ता पाने के लिए 4 कार्यकम बने-

सन १९६७ में जब वे पहली बार बिहार के उपमुख्यमन्त्री बने तब उन्होने बिहार में मैट्रिक परीक्षा पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। इसके पीछे उनका सुचिंतित तर्क था। उस काल में अंग्रेजी के कारण अधिकांश लड़कियां मैट्रिक पास नहीं कर पाती थीं। इस कारण लड़कियों के विवाह में मैट्रिक की परीक्षा पास करना बड़ी अड़चन बन गया था। कर्पूरी ठाकुर ने इसका आकलन-अध्ययन कराया तो पता चला कि अधिकतर छात्र अंग्रेजी में ही अनुतीर्ण होते हैं। यह वह समय था जब छठी या आठवीं क्लास से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू होती थी। यानी अंग्रेजी का ज्ञान देर से शुरू होता था और मैट्रिक का परिणाम खराब होने का यह कारण बनता। इसी उद्देश्य से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी विषय में पास करने की अनिवार्यता खत्म कर दी थी। इस प्रकार उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुँचाया। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था।

ईमानदार व्यक्तित्व

  • कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।
  • जब करोड़ो रुपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं। उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए। उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि ख़रीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।”
  • कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को पत्र लिखना नहीं भूले। इस पत्र में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, “पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना। मेरी बदनामी होगी।” रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का लाभ भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया।
  • उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा, “कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा। हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं।
  • कर्पूरी जी के मुख्यमंत्री रहते हुये ही उनके क्षेत्र के कुछ सामंती जमींदारों ने उनके पिता को सेवा के लिये बुलाया। जब वे बीमार होने के नाते नहीं पहुंच सके तो जमींदार ने अपने लठैतों से मारपीट कर लाने का आदेश दिया। जिसकी सूचना किसी प्रकार जिला प्रशाशन को हो गयी तो तुरन्त जिला प्रशाशन कर्पूरी जी के घर पहुंच गया और उधर लठैत पहुंचे ही थे। लठैतो को बंदी बना लिया गया किन्तु कर्पूरी ठाकुर जी ने सभी लठैतों को जिला प्रशाशन से बिना शर्त छोडने का आग्रह किया तो अधिकारीगणो ने कहा कि इन लोगों ने मुख्यमंत्री के पिता को प्रताडित करने का कार्य किया इन्हे हम किसी शर्त पर नही छोड सकते थे। कर्पूरी ठाकुर जी ने कहा " इस प्रकार के पता नही कितने असहाय लाचार एवं शोषित लोग प्रतिदिन लाठियां खाकर दम तोडते है काम करते है कहां तक, किस किस को बचाओगे। क्या सभी मुख्यमंत्री के मां बाप है। इनको इसलिये दंडित किया जा रहा है कि इन्होने मुख्यमंत्री के पिता को उत्पीड़ित किया है, सामान्य जनता को कौन बचायेगा। जाऔ प्रदेश के कोने कोने मे शोषण उत्पीड़न के खिलाफ अभियान चलाओ और एक भी परिवार सामंतों के जुल्मो सितम का शिकार न होने पाये" लठैतो को कर्पूरी जी ने छुडवा दिया। इस प्रकार वे पक्षपात एवं मानवता का मसीहा कहा जाना अतिश्योक्ति नहीं है।
  • अस्सी के दशक की बात है. बिहार विधान सभा की बैठक चल रही थी. कर्पूरी ठाकुर विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे. उन्होंने एक नोट भिजवा कर अपने ही दल के एक विधायक से थोड़ी देर के लिए उनकी जीप मांगी. उन्हें लंच के लिए आवास जाना था.

उस विधायक ने उसी नोट पर लिख दिया, ‘मेरी जीप में तेल नहीं है. कर्पूरी जी दो बार मुख्यमंत्री रहे. कार क्यों नहीं खरीदते?’ यह संयोग नहीं था कि संपत्ति के प्रति अगाध प्रेम के चलते वह विधायक बाद के वर्षों में अनेक कानूनी परेशानियों में पड़े, पर कर्पूरी ठाकुर का जीवन बेदाग रहा.

  • एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर रिक्शे से ही चलते थे. क्योंकि उनकी जायज आय कार खरीदने और उसका खर्च वहन करने की अनुमति नहीं देती
  • कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे. बहुगुणा जी कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे.

स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर 1952 से लगातार विधायक रहे, पर अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया.

  • सत्तर के दशक में पटना में विधायकों और पूर्व विधायकों के निजी आवास के लिए सरकार सस्ती दर पर जमीन दे रही थी. खुद कर्पूरी ठाकुर के दल के कुछ विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि आप भी अपने आवास के लिए जमीन ले लीजिए.

कर्पूरी ठाकुर ने साफ मना कर दिया. तब के एक विधायक ने उनसे यह भी कहा था कि जमीन ले लीजिए.अन्यथा आप नहीं रहिएगा तो आपका बाल-बच्चा कहां रहेगा? कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि अपने गांव में रहेगा.

  • कर्पूरी ठाकुर के दल के कुछ नेता अपने यहां की शादियों में करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं.पर जब कर्पूरी ठाकुर को अपनी बेटी की शादी करनी हुई तो उन्होंने क्या किया था? उन्होंने इस मामले में भी आदर्श उपस्थित किया.

1970-71 में कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री थे. रांची के एक गांव में उन्हें वर देखने जाना था. तब तक बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. कर्पूरी ठाकुर सरकारी गाड़ी से नहीं जाकर वहां टैक्सी से गये थे. शादी समस्तीपुर जिला स्थित उनके पुश्तैनी गांव पितौंजिया में हुई. कर्पूरी ठाकुर चाहते थे कि शादी देवघर मंदिर में हो, पर उनकी पत्नी की जिद पर गांव में शादी हुई. कर्पूरी ठाकुर ने अपने मंत्रिमंडल के किसी सदस्य को भी उस शादी में आमंत्रित नहीं किया था. यहां तक कि उन्होंने संबंधित अफसर को यह निर्देश दे दिया था कि बिहार सरकार का कोई भी विमान मेरी यानी मुख्य मंत्री की अनुमति के बिना उस दिन दरभंगा या सहरसा हवाई अड्डे पर नहीं उतरेगा. पितौंजिया के पास के हवाई अड्डे वहीं थे.आज के कुछ तथाकथित समाजवादी नेता तो शादी को भी ‘सम्मेलन’ बना देते हैं. भ्रष्ट अफसर और व्यापारीगण सत्ताधारी नेताओं के यहां की शादियों के अवसरों पर करोड़ों का खर्च जुटाते हैं. कर्पूरी ठाकुर के जमाने में भी थोड़ा बहुत यह सब होता था, पर कर्पूरी ठाकुर तो अपवाद थे.

  • हालांकि उनकी साधनहीनता भी उन्हें दो बार मुख्यमंत्री बनने से रोक भी नहीं सकी. 1977 में जेपी आवास पर जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन मनाया जा रहा था.

पटना के कदम कुआं स्थित चरखा समिति भवन में, जहां जेपी रहते थे,देश भर से जनता पार्टी के बड़े नेता जुटे हुए थे. उन नेताओं में चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख शामिल थे. मुख्यमंत्री पद पर रहने बावजूद फटा कुर्ता, टूटी चप्पल और बिखरे बाल कर्पूरी ठाकुर की पहचान थे. उनकी दशा देखकर एक नेता ने टिप्पणी की, ‘किसी मुख्यमंत्री के ठीक ढंग से गुजारे के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए?’ सब निहितार्थ समझ गए. हंसे. फिर चंद्रशेखर अपनी सीट से उठे. उन्होंने अपने लंबे कुर्ते को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर सामने की ओर फैलाया. वह बारी-बारी से वहां बैठे नेताओं के पास जाकर कहने लगे कि आप कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में दान कीजिए. तुरंत कुछ सौ रुपए एकत्र हो गए. उसे समेट कर चंद्रशेखर जी ने कर्पूरी जी को थमाया और कहा कि इससे अपना कुर्ता-धोती ही खरीदिए. कोई दूसरा काम मत कीजिएगा. चेहरे पर बिना कोई भाव लाए कर्पूरी ठाकुर ने कहा, ‘इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा.’

यानी तब समाजवादी आंदोलन के कर्पूरी ठाकुर को उनकी सादगी और ईमानदारी के लिए जाना जाता था, पर आज के कुछ समाजवादी नेताओं को? कम कहना और अधिक समझना !

सहज जीवनशैली के धनी

कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंत्रण था। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। उनका भाषण आडंबर-रहित, ओजस्वी, उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था। कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे, जिसे सुनकर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था, लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है। उनकी आवाज बहुत ही खनकदार और चुनौतीपूर्ण होती थी, लेकिन यह उसी हद तक सत्य, संयम और संवेदना से भी भरपूर होती थी। कर्पूरी जी को जब कोई गुमराह करने की कोशिश करता था तो वे जोर से झल्ला उठते थे तथा क्रोध से उनका चेहरा लाल हो उठता था। ऐसे अवसरों पर वे कम ही बोल पाते थे, लेकिन जो नहीं बोल पाते थे, वह सब उनकी आंखों में साफ-साफ झलकने लगता था। फिर भी विषम से विषम परिस्थितियों में भी शिष्टाचार और मर्यादा की लक्ष्मण रेखाओं का उन्होंने कभी भी उल्लंघन नहीं किया। सामान्य, सरल और सहज जीवनशैली के हिमायती कर्पूरी ठाकुर जी को प्रारंभ से ही सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों से जूझना पड़ा। ये अंतर्विरोध अनोखे थे और विघटनकारी भी। हुआ यह कि आजादी मिलने के साथ ही सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई। बिहार में कांग्रेस पर ऊंची जातियों का कब्जा था। ये ऊंची जातियां सत्ता का अधिक से अधिक स्वाद चखने के लिए आपस में लड़ने लगीं। पार्टी के बजाय इन जातियों के नाम पर वोट बैंक बनने लगे। सन 1952 के प्रथम आम चुनाव के बाद कांग्रेस के भीतर की कुछ संख्या बहुल पिछड़ी जातियों ने भी अलग से एक गुट बना डाला, जिसका नाम रखा गया ‘त्रिवेणी संघ’। अब यह संघ भी उस महानाटक में सम्मिलित हो गया।

शीघ्र ही इसके बुरे नतीजे सामने आने लगे। संख्याबल, बाहुबल और धनबल की काली ताकतें राजनीति और समाज को नियंत्रित करने लगीं। राजनीतिक दलों का स्वरूप बदलने लगा। निष्ठावान कार्यकर्ता औंधे मुंह गिरने लगे। कर्पूरी जी ने न केवल इस परिस्थिति का डटकर सामना किया, बल्कि इन प्रवृत्तियों का जमकर भंडाफोड़ भी किया। देश भर में कांग्रेस के भीतर और भी कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं, इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया। कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी। कर्पूरी जी उस सरकार में उप मुख्यमंत्री बने। उनका कद ऊंचा हो गया। उसे तब और ऊंचाई मिली जब वे 1977 में जनता पार्टी की विजय के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने। हुआ यह था कि 1977 के चुनाव में पहली बार राजनीतिक सत्ता पर पिछड़ा वर्ग को निर्णायक बढ़त हासिल हुई थी। मगर प्रशासन-तंत्र पर उनका नियंत्रण नहीं था। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी। कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफ़ी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया। इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो-हल्ला भी हुआ। अलग-अलग समूहों ने एक-दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए। मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा। उनका कद और भी ऊंचा हो गया। अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए।

  • कर्पूरी को कुछ लिखाते समय ही कर्पूरी ठाकुर को नींद आ जाती थी, तो नींद टूटने के बाद वे ठीक उसी शब्द से वह बात लिखवाना शुरू करते थे, जो लिखवाने के ठीक पहले वे सोये हुए थे।

निधन

वे राजनीति में कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक चालों को भी समझते थे और समाजवादी खेमे के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी। वे सरकार बनाने के लिए लचीला रूख अपना कर किसी भी दल से गठबंधन कर सरकार बना लेते थे, लेकिन अगर मन मुताबिक काम नहीं हुआ तो गठबंधन तोड़कर निकल भी जाते थे। यही वजह है कि उनके दोस्त और दुश्मन दोनों को ही उनके राजनीतिक फ़ैसलों के बारे में अनिश्चितता बनी रहती थी। कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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