वाष्पक या ब्वायलर (Boiler) एक बन्द पात्र होता है जिसमें जल या कोई अन्य द्रव गरम किया जाता है। इसमें गरम करने (उबालने) से उत्पन्न वाष्प को बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था भी होती है जिससे वाष्प को विभिन्न प्रक्रमों या गर्म करने के लिये उपयोग में लाया जा सके। इसकी डिजाइन इस प्रकार की होती है कि गर्म करने पर कम से कम उष्मा बर्बाद हो तथा यह वाष्प का दाब भी सहन कर सके।
इसमें गरम किया हुआ या वाष्पीकृत तरल को निकालकर विभिन्न प्रक्रमों में या ऊष्मीकरण के लिये प्रयुक्त किया जाता है, जैसे- जल का ऊष्मीकरण, केन्द्रीय ऊष्मीकरण, वाष्पक-आधारित शक्ति-उत्पादन, भोजन बनाने और सफाई आदि के लिये।
यूरोप के इतिहास में बायलरों का उल्लेख यूनान और रोम के साम्राज्यों के समय से ही देखने में आ रहा है, लेकिन उनका आधुनिक रूप में विकास बहुत धीरे धीरे हुआ है। शक्ति उत्पादन करने के लिए वाष्प का उपयोग १९वीं शताब्दी से आरंभ हुआ, लेकिन जब ट्रेविथिक (Trivithick) ने उच्च दाब के वाष्प का उपयोग अपने इंजनों में किया, इससे पहले बॉयलर का कौन सा अंग कितना मजबूत और किस धातु का हो इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दिनों तक जो लोग किसी भी काम के लिए बॉयलर बनाते थे, वे या तो अपने उपलब्ध साधनों और सुविधा के अनुसार, अथवा जहाँ उसे बैठाना है उस जगह के अनुसार, उसकी आकृति बना लेते थे। आरंभ में बॉयलर ताँबे की चादरों से और बाद में पिटवें लोहे से बनाने लगे।
मजबूती और दाब सहन करने की दृष्टि से बॉयलर की सर्वोत्तम आकृति गोल ही होनी चाहिए, लेकिन इसे बिलकुल सही बनाने, स्थिरतापूर्वक टिकाकर बैठाने और आग की गरमी को अधिक से अधिक मात्रा में पानी तक पहुँचाकर पानी को वाष्प बनाने में बड़ी झंझटें और कठिनाइयाँ पड़ती हैं। मजबूती की दृष्टि से गोलाकार के बाद दूसरी सबसे उत्तम आकृति बेलनाकार है। अत: जब से वाष्प का उपयोग शक्ति उत्पादन के लिए होने लगा तब से बायलर बेलनाकार ही बनाए जाते हैं, चाहे वे अकेले एक ही ढोल के रूप में हों अथवा अनेक ढोलों के संयुक्त रूप में, अथवा ढोलों और अनेक नलियों के संयुक्त रूप में। बॉयलरों के बनाने और संचालन के निमित्त, जनता की सुरक्षा और बॉयलरों की कार्यक्षमता की दृष्टि से एक अलग शास्त्र ही बन गया है, जिसके कुछ आवश्यक वैज्ञानिक नियम राज्यों के विधान में भी आ गए हैं। इनका पालन करने के लिए बॉयलरों का प्रत्येक प्रयोगकर्ता बाध्य है।
बॉयलरों को उनकी बनावट के अनुसार दो मुख्य वर्गों में बाँटा जाता है :
अग्नि-नलिका बॉयलरों में कॉर्निश बॉयलर सबसे पुराने प्रकार का है। इसकी बनावट बहुत ही सरल होती है, जिसके कारण यह आजकल भी काम में आता है। इसमें एक ही धूम्रवाहिनी नलिका होती है, जिसके आगे के भाग में भट्ठी बनी होती है। आजकल यह बॉयलर छोटी बड़ी कई मापों में बनाया जाता है। इसकी छोटी से छोटी माप व्यास में चार फुट के लंबाई में १० फुट होती है और बड़ी से बड़ी माप ६ फुट ६ इंच व्यास में तथा लंबाई में २४ फुट होती है। इसमें एक ही भट्ठी और धूम्रवाहिनी होती है, अत: बड़ी माप के बॉयलर में कोयला ठीक प्रकार से नहीं जल पाता और उसके बृहद् आकार के अनुपात से उसका तप्त धरातल भी कम रहता है। इसलिए कॉर्निश प्रकार के बॉयलर में दो भट्ठियाँ बराबर बराबर बना देने से वही लैंकाशायर बॉयलर कहलाने लगता है। इनकी अन्य बनावटें एक सी ही होती हैं। छोटे से छोटे लंकाशायर बॉयलर का व्यास ५ फुट, ६ इंच और लंबाई १६ फुट होती है, तथा बड़े से बड़े का व्यास १० फुट और लंबाई ३० फुट होती है। अनेक बार इसमें तीन भट्ठियाँ भी बना दी जाती हैं। कॉर्निश और लैकाशायर बॉयलरों में साधारणतया वष्प की दाब १८० पाउंड प्रति वर्ग इंच तक होती है। इन दोनों प्रकार के बॉयलरों को अंत: प्रज्वलित बॉयलर भी कह सकते हैं, वैसे तो इनमें अग्नि की ज्वालाएँ भट्ठी के पीछे की तरफ से घूमकर बॉयलर को बाहर की तरफ से भी तपाती हैं।
कॉर्निश और लैंकाशायर बॉयलरों में एक से अधिक भट्ठी और बड़े बड़े व्यास की धूम्रवाहिनी लगा देने पर भी उनका तप्त धरातल इच्छानुसार नहीं बढ़ने पाता। अत: इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई प्रकार के बॉयलरों में बड़ी अग्निनलिकाएँ लगाने के बदले छोटे व्यास की अनेक धूम्र नलिकाएँ लगा दी जाती हैं, जिनके कारण बॉयलर बहुनलिका बॉयलर कहलाते हैं। यह बाह्यत: प्रज्वलित (externally fired) और अंत: प्रज्वलित (internally fired), दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। बाह्यत: प्रज्वलित बॉयलर उन वन्य प्रधान क्षेत्रों में काम में लाए जाते हैं जहाँ जंगलों में ही लकड़ी चीरने की आरा मशीनें बैठाई जाती हैं। ये आकार में काफी छोटे और हलके होने के कारण सुवाह्य होते हैं। इस कारण इन्हें ले जाकर ईटों की बुनियादी भट्ठी पर रख कर काम चलाया जा सकता है। अंत: प्रज्वलित बॉयलरों के ढोल के भीतर ही एक अथवा दो अग्नि-नलिकाकार भट्ठी बनाकर और उनका प्रज्वलन कक्ष ईटों की बुनियाद में बनाकर, पीछे की तरफ से गरम गैसों को धूम्रनलिकाओं में से आगे की तरफ लौटा कर चिमनी में से निकाल दिया जाता है। यह बॉयलर ड्राइबैक नाम से प्रसिद्ध है। बायलरों में से एलिफैंट, अथवा टिस्चिबीन (Tischbein) नामक बायलर का यूरोप में अधिक उपयोग होता है। इसमें दो अथवा अधिक ढोल एक दूसरे के ऊपर नीचे लगे रहते हैं और उनका परस्पर संबंध बड़े व्यास के छोटे नलों द्वारा होता है। ऊपरवाले ढोल में पतली नलिकाएँ चाहे लगी हों या नहीं, लेकिन नीचेवाले ढोल में अवश्य ही भट्ठी और पतली पतली धूमनलिकाएँ होती है। इसी प्रकार के बॉयलर का परिष्कृत रूप जहाजी कामों के लिए भी बनाया गया है, जिसे स्कॉच बॉयलर कहते हैं। इसमें उपर्युक्त बॉयलरों के सब गुणों का समावेश हो गया है। लेकिन इसका प्रज्वलनकक्ष पूर्णतया बॉयलर के भीतर ही है, अत: इसमें किसी प्रकार की ईटों की चिनाई नहीं करनी पड़ती। पंप आदि चलाने के छोटे कामों के लिए जो अंत:प्रज्वलित बॉयलर बनाए जाते हैं, वे बहुधा खड़े बॉयलर होते हैं। इन्हें कॉकटन बॉयलर कहते हैं। ऐसे खड़े बॉयलर में मोटी मोटी दो जलनलियाँ लगी होती हैं, जिन्हें गैलोवे ट्यूब कहते हैं। जलनलियों के लाभों का वर्णन आगे किया गया है। रेल इंजन का बॉयलर अंत:प्रज्वलित अग्निनालयुक्त ही है, लेकिन इसकी भट्ठी में आजकल २-४ जलनलिकाएँ लगाने का भी रिवाज हो गया है।
इस प्रकार के बॉयलरों में छोटे आकार के खड़े(horizontal) बॉयलरों को छोड़ कर, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, अन्य सब जलनलिका बॉयलर बाह्यत: प्रज्वलित होते हैं। इन्हें बहुधा तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है : *(१) जिनमें जलप्रवाही नलिकाएँ क्षितिज तल से झुकी हुई रहती हैं,
प्रथम दो श्रेणियों में तो जल का प्रवाह स्वत: ही गरमी की परिवहनक्रिया द्वारा होता रहता है, लेकिन तृतीय श्रेणी के बॉयलरों में किसी पंप की सहायता से बलपूर्वक प्रवाह चालू रखा जाता है। सभी जलनलिकायुक्त, बाह्यत: प्रज्वलित बॉयलरों में ऊपर और नीचे क्रमश: वाष्प और पानी के ढोल रहते हैं, जिन्हें परस्पर छोटी अथवा बड़ी व्यास की जलनलिकाओं से संबंधित कर एक अथवा अधिक संख्या में लगा दिया जाता है। ऊपरवाले ढोलों में वाष्प, अथवा पानी और वाष्प, दोनों का मिश्रण रहता है और नीचेवाले ढोल में केवल पानी और कभी कभी गाढ़ा पानी और कीचड़ भी रहता है। इस ढोल को मडंड्रम (mud drum) भी कहते हैं। विभिन्न ढोलो की नलिकाओं के पारस्परिक संबंध में विविधता रहने के कारण इन बॉयलरों के कई वर्ग बन जाते हैं।
आड़ी जलनलिकायुक्त बॉयलरों में बैवक़ॉक-विलकॉक्स बॉयलर सर्वोत्तम समझा जाता है। इसमें चार इंच व्यास की नलिकाओं की श्रेणियाँ हेडरों (headers) में दोनों तरफ से लगाकर, उनके सिरों को फुला दिया जाता है और फिर इन हेडरों के ऊपर की तरफ लगी चार इंच व्यास की ही, लेकिन कम लंबाई की, नालियों को उसी प्रकार से बैठ कर, उनके ऊपरी सिरों को वाष्प ढोल में बैठाकर, नीचे की नलिकाश्रेणियों के पूरे जाल को ढोल से आगे और पीछे की ओर से संबंधित कर दिया जाता है। पीछे वाले हेडरों का संबंध, नीचे की ओर से पंकसंग्राहक (mudbox) से कर दिया जाता है, जिसमें बॉयलर के काम करते समय कीचड़ और बहुत गाढ़ा पानी इकट्ठा हो जाता है जो सुविधानुसार बाहर निकाल दिया जाता है। स्थलीय बॉयलरों में वाष्प पानी के ढोल को नलियों की लंबाई की दिशा में रखा जाता है और जहाजी बॉयलरों में आड़ा भी रख सकते हैं।
पूर्ववर्णित जलनलिका बॉयलर से इसमें दो भिन्नताएँ हैं। इस बॉयलर की नलियों का बाहरी व्यास लगभग श्इंच होता है और वे छह छह इंचों के अंतर पर हेडरों से एक ही ओर से जुड़ी हैं और उनका मुड़ा हुआ भाग अधर में लटकता रहता है, जिस कारण पानी का प्रवाह एक ही दिशा में होता है। इन पतली पतली नलियों के बीच एक क्षेत्रीय नली (field tube) और होती है, जिससे नलियों की एक श्रेणी में से बहकर आया हुआ पानी क्षेत्रीय नली में जाकर, फिर दूसरी श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है। इस बॉयलर का उपयोग कारखानों के अलावा जहाजी कामों में अधिक होता है। फ्रांस के जहाजी बेड़ों में इसका अधिक प्रचार है। जर्मनी में भी जहाजी कर्मों के लिए इसी से मिलता जुलता एक बॉयलर बनाया गया था, जिसे दुर्र (Durr) बॉयलर कहते हैं।
इस बॉयलर में दो अथवा तीन वाष्पढोल ऊपर की तरफ और दो अथवा एक पानी का ढोल नीचे लगाकर उन्हें मुड़ी हुई जलनलिकाओं द्वारा जोड़ दिया जाता है तब उस ऐल्फा (Alpha) बॉयलर कहते हैं। सीधी जलनलिकाएँ लगाने से कई लाभ होते हैं : प्रथम तो वायु का व्यारोध (baffle) बड़ी सरलता से किया जा सकता है; दूसरे सीधी नलिकाओं को आवश्यकतानुसार जिस लंबाई की भी चाहें काटकर लगाया जा सकता है, अत: स्टॉक में फालतू नलियाँ नहीं रखनी पड़ती; तीसरे परीक्षा करते समय नलियों की परीक्षा ढोल के भीतर घुसकर सरलता से की जा सकती है और उन्हें बदला भी जा सकता है।
इन बॉयलरों की गिनती जहाजों बॉयलरों में होती हैं, जो ऊर्ध्वाधर नलियों के लिए प्रसिद्ध हैं। इसकी सब जलनलिकाएँ सीधी ही हैं और नीचे के ढोल बेलनाकार होने के बदले डी (D) आकार के हैं। थॉर्नक्रॉफ्ट बॉयलर में बाहर की तरफ रहनेवाली नलिका श्रेणी कुछ धनुषाकार मुड़ी होती है।
आजकल औद्योगिक क्षेत्र में इंजनों, टरबाइनों तथा अन्य प्रकार के यंत्रों और प्रक्रियाओं में वाष्प का खर्चा इतना अधिक होता है कि साधारण बॉयलर उस आवश्यकता को पूरी करने में असमर्थ रहते हैं। यारो और स्टर्लिंग बॉयलर, जिनका हमने ऊपर वर्णन किया है, थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ बड़े कारखानों और बिजली घरों के लिए कुछ अधिक उपयोगी तो हो गए, क्योंकि सुधार करने से उनमें कोयले की बुकनी, तेल और लोहा गलाने की भट्ठियों से खारिज होनेवाली गैसें भी जलाई जाने लगीं। फिर भी वे आधुनिक क्षेत्रों में पिछड़ गए, क्योंकि जहाजी कामों के लिए तो ५७५ पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब का वाष्प, जिसका ऊँचा ताप ३९९° सें. हो, काफी समझा जाता है। यदि यारो और स्टर्लिग बॉयलरों में दो लाख पाउंड वाष्प उक्त दाब और ताप पर प्रति घंटा भी बना दें, तो इसे काफी समझा जाता है, लेकिन स्थलीय कारखानों और बिजली घरों में १,००० पाउंड प्रति वर्ग इंच और कभी कभी इससे ऊँचे दाब का वाष्प भी पाँच लाख पाउंड प्रति घंटा से भी अधिक मात्रा में खर्च हो जाता है। अत: ढोल और जलनलिकायुक्त बॉयलरों के बदले अधिकतर जलनलिकायुक्त कुछ ऐसे उपकरण बनाए जाने लगे हैं, जिनमें ढोल तो नाममात्र के लिए वाष्प संचित करने के निमित्त ही लगाया जाता है। इनकी और पुराने बॉयलरों की आकृति में अब कोई समानता नहीं रही, अत: इन्हें भापजनित्र (steam Generator) ही कहते हैं। भापजनित्र में विशुद्ध आसुत जल का पंपों के बल से पतली पतली नलियों में परिवहन और उन्हीं में वाष्पीकरण भी होता है। इस प्रकार के बॉयलरों को प्रज्वलनकक्ष एक बड़ी कोठरी के रूप में बनाया जाता है, जिसकी दीवारें अग्निसह ईटों की बनाकर उनके सहारे भीतर की तरफ जलनलिकाओं का अस्तर (lining) लगा दिया जाता है जो भट्ठी की ज्वालाओं में से विकिरण द्वारा आई हुई गरमी के एक बहुत बड़े अंश को सोख लेता है और शेष गरमी यथापूर्व तिरछी जलनलिकाओं और बॉयलर के ढोलों द्वारा अवशोषित होती है।
इसी प्रकार के वुउ वाष्पजनित्र नामक एक भीमकर्मा वाष्पजनित्र में कोयले की बुकनी जलाई जाती है। इसकी रचना और निर्माण न्यूयॉर्क की कांबश्चन इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन और लंदन की कांबश्चन जेनरेटर कंपनियों ने मिलकर किया है। यह ८०० पाउंड प्रति वर्ग इंच की दाब पर ७५ हजार पाउंड से लेकर चार लाख पाउंड प्रति घंटा वाष्प का उत्पादन करनेवाला बनाया जा सकता है। इसकी भट्ठी कोठरीनुमा होती है, जिसकी दीवारों के चारों और अनाच्छादित जलनलिकाओं की एक परत लगी रहती है। इस प्रज्वलनकक्ष के चारों कोनों पर, नीचे की ओर, कोयले की बुकनी संपीड़ित गरम हवा से मिश्रित कर, बलपूर्वक फुहारों द्वारा छोड़ी जाती है। एकदम प्रज्वलित होकर बड़ी भीषण अग्नि के बवंडर के रूप में जलती हुई गैस ऊपर को उठती है और इस प्रज्वलन कक्ष की छत के समीप नलियों के मध्य में से होती हुई प्राथमिक अतितप्तक (primary superheater) के क्षेत्र में प्रवेश कर और वहाँ से परावर्तित होकर, अवमंदक द्वार (damper door) में से होती हुई अतितप्तक में प्रवेश करती है, जिसमें से नीचे की दिशा में बहती हुई गैस वायुतप्तक में घूमकर ऊपर उठती है। यदि मितोपयोजक (economiser) लगा हो, तो गैस उसमें से होती हुई चिमनी में से बाहर निकल जाती है।
इस प्रकार के वाष्पजनित्र कम से कम जगह घेरते हैं, किंतु अधिक से अधिक शक्तिशाली वाष्प का उत्पादन कर सकते हैं। इनमें एटमॉस् (Atmos), बेनसन् (Benson), लामॉण्ट (La mont), लॉफलर (Loffler), सुल्जर मोनोट्यूब (Sulzer monotube) और विलॉक्स (Velox) प्रसिद्ध हैं। इन्हें भी दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
लॉफलर, लामॉण्ट और विलोक्स की गिनती एक श्रेणी में होती है और बेन्सन तथा सुल्जर मोनोट्यूब की गिनती दूसरी श्रेणी में होती है।
इसे इंग्लैंड के बुल्वर हैंपटन की जॉन टॉम्सन कंपनी से परा उच्चदाब (ultra high pressure) का वाष्प तैयार करने के लिए बनाया है, जो इंग्लैंड के ही कई बिजली घरों में १,००० पाउंड प्रति वर्ग इंच दाब का वाष्प तैयार करता है, लेकिन इसकी बनावट में ऐसी कोई बात नहीं जिसके कारण उसमें निम्नदाब का वाष्प पैदा कर उपयोग में न लाया जा सके। इस वाष्पजनित्र में कोयले की बुकनी अथवा तेल ईंधन का उपयोग किया जा सकता है। वाष्पजनित्र का मुख्य भाग वाष्प और जलसंग्राहक ढोल है, जिसमें से पानी अपने गुरुत्व के कारण नीचे लगे पंपों में जाता है। यह पंप इस पानी को मुलायम इस्पात की बनी जलवितरक शीर्षिकाओं में मुख्य ढोलक की दाब से लगभग ३५ पाउंड प्रति वर्ग इंच की अतिरिक्त दाब पर, भेज देते हैं। इन शीर्षिकाओं की संख्या वाष्पजनित्र की रचना और सामर्थ्य के अनुसार कम या ज्यादा भी हो सकती है। यदि वाष्पजनित्र निम्न कोटि की दाब पर काम करता है, तब तो शीर्षिकाओं की काट आयताकार बनाई जाती हैं और यदि उच्च दाब पर काम करता है तो शीर्षिकाओं की काट गोल बनाई जाती है। शीर्षिकाओं में पहुँचने पर पानी वाष्पीकरण नलिकाओं में जाता है, जिनका मुंह शीर्षिकाओं के भीतर छुच्छियों के रूप में इस प्रकार ठीक हिसाब से बनाया जाता है कि उनमें उतना ही पानी प्रविष्ट हो सके जितनी मात्रा में वह नली गरमी का शोषण कर सकती है। प्रत्येक छुच्छी में कई छोटे छोटे छेद होते हैं, जिनमें से छनकर पानी जाता है। छुच्छियों में जो भी पानी जाता है उसे पहले रासायनिक रीति से मृदु और वायुरहित कर दिया जाता है, जिससे नलियों में से गुजरते समय उसका वाष्प बनता ही जाता है। वाष्प की दाब ऊँची होने के कारण विशिष्ट आयतन भी कम होता है और उस तरल का वेग भी बहुत ऊँचा होता है, अत: अन्य साधारण बायलरों के समान बुलबुले नहीं उठते और इस वाष्प तथा पानी का घनीभूत मिश्रण बनकर ढोल में वापस लौट आता है।
ढोल में जाकर, पानी का भाग तो नीचे की ओर इकट्ठा होकर फिर पंप में पहुँचता है और वाष्प ऊपरी भाग में इकट्ठा हो उसके ऊपर की ओर से दूसरी नली में होकर अतितापक (superheater) में पहुँचता है। अतितापक में वाष्प अधिक गरम हो जाता है, जहाँ के उपयोग के लिए वह निष्कासन वाल्ब द्वारा निकाल लिया जाता है। जितना वाष्प खर्च होता है, उसके बराबर के पानी की कमी पूरी करने के लिए एक दूसरा पंप मितोपयोजक के माध्यम से ढोल में ताजा भरणजल पहुँचाता रहता है। नलियों में पानी की जो मात्रा पंप के द्वारा चक्कर खाती रहती है, उसका बहुत थोड़ा सा ही अंश भरणजल के रूप में आता है। अत: उस पंप के ऊपर पड़नेवाले भार में कोई अंतर नहीं पड़ता और सदा वह एक सी गति से ही चलता रहता है। इस पंप के चलाने में वाष्पजनित्र द्वारा उत्पन्न शक्ति की लगभग ०.५% शक्ति ही खर्च होती है। यह पंप पंखुड़ी चक्रयुक्त अपकेंद्रिक ही होता है और इसकी बनावट इतनी मजबूत होती है कि वह जनित्र की पूरी दाब सह सकता है। अत: जलपरिभ्रमण के लिए एक ही पंप काफी होता है, लेकिन अधिक सावधानी बरतने के लिए दो पंप लगा दिए जाते हैं। प्रथम पंप तो बिजली से चलाया जाता है। और दूसरा वाष्प टरबाइन द्वारा। जब प्रथम पंप खराब हो जाता है तब नलों में जो दाबभिन्नता उत्पन्न होती है वह गेज से मालूम हो जाती है। इस समय इन नलों से संबंधित भिन्नक दाब रिले (differential pressure relay) स्वयं चैतन्य होकर, टरबाइन के वाष्प वाल्व को खोल देता है, जिसमें दूसरा पंप भी स्वयं चल पड़ता है।
रेल इंजनों के वाष्पजनित्र में पराउच्च दाब का प्रयोग पिछले ३० वर्षों से हो रहा है। इनमें श्मिट (Schmidt) प्रकार का वाष्पित्र होता है, जिसमें परकिंस के आवृत्त चक्र के अनुसार वाष्प बनाया जाता है। कुछ वाष्पित्र लोफलर श्वार्टज़कॉफ़ (Loffler-schwartzkopff) के सिद्धांतानुसार काम करते हैं।
वाष्पोत्पादन के लिए प्रयुक्त होनेवाला जल मृदु और शुद्ध होना चाहिए, अन्यथा बॉयलर की कुशलता और जीवन कम हो जाता है। भरणजल का ताप २०° सें., या ४०° सें., या इसके ऊपर भी रह सकता है।
छोटे बॉयलर से अधिक वाष्प प्राप्त करने के लिए जल का अतितापन (superheating) किया जा सकता है। अतितापन के और भी लाभ हैं।
बॉयलर में कोई भी ईधन ठोस, द्रव और गैसीय, जो सुविधा से प्राप्त हो, उपयुक्त हो सकता है, यद्यपि इनके ऊष्मीय मान विभिन्न होते हैं। साधारणतया कोयला, पेट्रोलियम, लकड़ी तथा गैसें प्रयुक्त होती है (देखें, ईंधन)।
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