]
महावंश (शाब्दिक अर्थ : महान इतिहास) पालि भाषा में लिखी पद्य रचना है। इसमें श्रीलंका के राजाओं का वर्णन है। इसमें कलिंग के राजा विजय (५४३ ईसा पूर्व) के श्रीलंका आगमन से लेकर राजा महासेन (334–361) तक की अवधि का वर्णन है। यह सिंहल का प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य है। भारत का शायद ही कोई प्रदेश हो, जिसका इतिहास उतना सुरक्षित हो, जितना सिंहल का; डब्ल्यू गेगर की इस सम्मति का आधार महावंस ही है। महान लोगों के वंश का परिचय करानेवाला होने से तथा स्वयं भी महान होने से ही इसका नाम हुआ "महावंस" (महावंस टीका)।
इस टीका ग्रंथ की रचना "महानाम" स्थविर के हाथों हुई। आप दीघसंद सेनापति के बनाए विहार में रहते थे (महावंस टीका, पृ. 502)। दीघसंद सेनापति राजा देवानांप्रिय तिष्य का सेनापति था।
"महावंस" पाँचवीं शताब्दी ई पू से चौथी शताब्दी ई तक लगभग साढ़े आठ सौ वर्षों का लेखा है। उसमें तथागत के तीन बार लंका आगमन का, तीनों बौद्ध संगीतियों का, विजय के लंका जीतने का, देवानांप्रिय तिष्य के राज्यकाल में अशोकपुत्र महेंद्र के लंका आने का, मगध से भिन्न भिन्न देशों में बौद्ध धर्म प्रचारार्थ भिक्षुओं के जाने का तथा बोधि वृक्ष की शाखा सहित महेंद्र स्थविर की बहन अशोकपुत्री संघमित्रा के लंका आने का वर्णन है। सिंहल के महापराक्रमी राजा दुष्टाग्रामणी से लेकर महासेन तक अनेक राजाओं और उनके राज्य काल का वर्णन है। इस प्रकार कहने को "महावंस" केवल सिंहल का इतिहासग्रंथ है, लेकिन वस्तुत: यह सारे भारतीय इतिहास की मूल उपादान सामग्री से भरा पड़ा है।
"महावंस" की कथा महासेन के समय (325-352 ई) तक समाप्त हो जाती है। किंतु सिंहल द्वीप में इस "महावंस" का लिखा जाना आगे जारी रहा है। यह आगे का हिस्सा चूलवंस कहा जाता है। "महावंस" सैंतीसवें परिच्छेद की पचासवीं गाथा पर पहुँचकर एकाएक समाप्त कर दिया गया है। छत्तीस परिच्छेदों में प्रत्येक परिच्छेद के अंत में "सुजनों के प्रसाद और वैराग्य के लिये रचित महावंस का......परिच्छेद" शब्द आते हैं। सैंतीसवाँ परिच्छेद अधूरा ही समाप्त है। जिस रचयिता ने महावंस को आगे जारी रखा उसने इसी परिच्छेद में 198 गाथाएँ और जोड़कर इस परिच्छेद को "सात राजा" शीर्षक दिया। बाद के हर इतिहासलेखक ने अपने हिस्से के इतिहास को किसी परिच्छेद पर समाप्त न कर अगले परिच्छेद की भी कुछ गाथाएँ इसी अभिप्राय से लिखी प्रतीत होती हैं कि जातीय इतिहास को सुरक्षित रखने की यह परंपरा अक्षुण्ण बनी रहे।
महानाम की मृत्यु के बाद महासेन (302 ई) के समय से दंबदेनिय के पंडित पराक्रमबाहु (1240-75) तक का महावंस धम्मकीर्ति द्वितीय ने लिखा। यह मत विवादास्पद है। उसके बाद से कीर्ति राजसिंह की मृत्यु (1815) के समय तक का इतिहास हिक्कडुवे सुमंगलाचार्य तथा बहुबंतुडावे पंडित देवरक्षित ने। 1833 में दोनों विद्वानों ने "महावंस"का एक सिंहली अनुवाद भी छापा। 1815 से 1935 तक का इतिहास यगिरल प्रज्ञानंद नायक स्थविर ने पूर्व परंपरा के अनुसार 1936 में प्रकाशित कराया।
मूल महावंस की टीका के रचयिता का नाम भी महानाम है। किसी किसी का कहना है कि महावंस का रचयिता और टीकाकार एक ही है। पर यह मत मान्य नहीं हो सकता। महावंस टीकाकार ने अपनी टीका को "वंसत्थप्पकासिनी" नाम दिया है। इसकी रचना सातवीं आठवीं शताब्दी में हुई होगी।
और स्वयं महावंस की? इसकी रचना महावंस टीका से एक दो शताब्दी पहले। धातुसेन नरेश का समय छठी शताब्दी है, उसी के आस पास इस महाकाव्य की रचना होनी चाहिए।
This article uses material from the Wikipedia हिन्दी article महावंश, which is released under the Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 license ("CC BY-SA 3.0"); additional terms may apply (view authors). उपलब्ध सामग्री CC BY-SA 4.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। Images, videos and audio are available under their respective licenses.
®Wikipedia is a registered trademark of the Wiki Foundation, Inc. Wiki हिन्दी (DUHOCTRUNGQUOC.VN) is an independent company and has no affiliation with Wiki Foundation.