फुफ्फुस कर्कट रोग (Lung Cancer) फुफ्फुस या फेफड़ें का कैंसर एक आक्रामक, व्यापक, कठोर, कुटिल और घातक रोग है जिसमें फेफड़े के ऊतकों की अनियंत्रित संवृद्धि होती है। 90%-95% फेफड़े के कैंसर छोटी और बड़ी श्वास नलिकाओं (bronchi and bronchioles) के इपिथीलियल कोशिकाओं से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इसे ब्रोंकोजेनिक कारसिनोमा भी कहते हैं। प्लुरा से उत्पन्न होने वाले कैंसर को मेसोथेलियोमा कहते हैं। फेफड़े के कैंसर का स्थलान्तर बहुत तेजी होता है यानि यह बहुत जल्दी फैलता है। हालांकि यह शरीर के किसी भी अंग में फैल सकता है। यह बहुत जानलेवा रोग माना जाता है। इसका उपचार भी बहुत मुश्किल है।
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हमारा श्वसन तंत्र नासिका से शुरू होकर फेफड़ों में स्थित वायुकोषों तक फैला हुआ है। फेफड़ें आकार में शंकु की तरह ऊपर से सँकरे और नीचे से चौड़े होते हैं। छाती के दो तिहाई हिस्से में समाए फेफड़े स्पंज की तरह लचीले होते हैं। नाक से ली गई साँस स्वर यंत्र और ग्रसनी (फैरिंक्स) से होते हुए श्वास नली (ट्रैकिया) में पहुँचती है। गर्दन के नीचे छाती में यह पहले दाएँ-बाएँ दो भागों में विभाजित होती है और पेड़ की शाखाओं-प्रशाखाओं की तरह सत्रह-अठारह बार विभाजित होकर श्वसन वृक्ष बनाती है। यहाँ तक का श्वसन वृक्ष वायु संवाहक क्षेत्र (एयर कंडक्टिंग झोन) कहलाता है। इसकी अंतिम शाखा जो कि टर्मिनल ब्रांकिओल कहलाती है, वह भी 5-6 बार विभाजित होकर उसकी अंतिम शाखा पंद्रह से बीस वायुकोषों में खुलती है। वायुकोष अँगूर के गुच्छों की तरह दिखाई देते हैं। टर्मिनल ब्रांकिओल से वायुकोषों तक का हिस्सा श्वसन क्रिया को संपन्न करने में अपनी मुख्य भूमिका निभाता है। इसे श्वसन क्षेत्र (रेस्पिरेटरी झोन) कहते हैं।
श्वास नली के इस वृक्ष की सभी शाखाओं-प्रशाखाओं के साथ रक्त लाने और ले जाने वाली रक्त वाहिनियाँ भी होती हैं। साँस लेने पर फूलने और छोड़ने पर पिचकने वाले इन वायुकोषों और घेरे रखनेवाली सूक्ष्म रक्त नलिकाओं (कैपिलरीज) के बीच इतने पतले आवरण होते हैं कि ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड का लेन-देन आसानी से और पलक झपकते हो जाता है। पल्मोनरी धमनी हृदय से अशुद्ध रक्त फेफड़े तक लाती है और वायुकोषों में शुद्ध हुआ रक्त छोटी शिराओं से पल्मोरनरी शिरा के माध्यम से पुनः हृदय तक पहुँच जाता है।
फेफड़े का कैंसर स्त्री और पुरुष दोनों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। सन् 2010 में अमेरिका में इस कैंसर के 222,520 नये रोगी मिले और 157,300 रोगियों की मृत्यु हुई। नेशनल कैंसर इन्स्टिट्यूट के अनुसार हर 14 स्त्री और पुरुष में से एक को जीवन में कभी न कभी फेफड़े का कैंसर होता है।
फेफड़े का कैंसर प्रायः वृद्धावस्था का रोग है। लगभग 70% रोगी निदान के समय 65 वर्ष से बड़े होते हैं, सिर्फ 3% रोगी 45 वर्ष से छोटे होते हैं। 1930 से पहले यह रोग बहुत कम होता था। लेकिन जैसे जैसे धूम्रदण्डिका धूम्रपान का प्रचलन बढ़ता गया, इस रोग की व्यापकता में नाटकीय वृद्धि होती चली गई। इन दिनों कई देशों में धूम्रपान निषेध सम्बन्धी स्वास्थ्य-शिक्षा, प्रचार और सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषेध के कड़े नियमों के कारण इस कैंसर की व्यापकता में गिरावट आई है। फिर भी फेफड़े का कैंसर पूरे विश्व में स्त्री और पुरुष दोनों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण बना हुआ है।
सिगरेट का धूम्रपान फेफड़े के कैंसर का सबसे बड़ा कारण है। यह देखा गया है कि इस कैंसर के 90% रोगी निश्चित तौर पर तम्बाकू सेवन करते हैं। फेफड़े के कैंसर का जोखिम इस बात पर निर्भर करता है कि वह दिन भर में कितनी सिगरेट पीता है और कितने समय से सिगरेट पी रहा है। इससे चिकित्सक रोगी के धूम्रपान इतिहास के पैक इयर की गणना करता हैं। मान लीजिये कोई व्यक्ति 10 वर्ष से सिगरेट के 2 पैकेट रोज पी रहा है तो उसका धूम्रपान इतिहास 20 पैक-इयर हुआ। व्यक्ति में 10 पैक-इयर का धूम्रपान इतिहास भी फेफड़े के कैंसर का जोखिम रहता है, लेकिन 30 पैक-इयर में फेफड़े के कैंसर का जोखिम बहुत ही ज्यादा होता है। 2 पैकेट से ज्यादा सिरगरेट पीने वाले 14% लोग फेफड़े के कैंसर से मरते हैं। बीड़ी, पाइप और सिगार पीने वाले लोगों को फेफड़े के कैंसर का जोखिम धूम्रपान नहीं करने वाले व्यक्ति से पांच गुना अधिक रहता है। जबकि सिगरेट पीने वालों में यह जोखिम 25 गुना अधिक होता है।
तम्बाकू में निकोटिन समेत 400 कैंसरकारी पदार्थ होते हैं, जिनमें प्रमुख हैं नाइट्रासेमीन्स और पॉलीसिस्टिक ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन्स। सिगरेट छोड़ने वालों के लिए एक अच्छी खबर यह है कि सिगरेट छोड़ने के बाद कैंसर का जोखिम साल दर साल कम होता जाता है और 15 वर्ष बाद उनके बराबर हो जाता है जिन्होंने कभी सिगरेट पी ही नहीं है। क्योंकि उनके फेफड़ों में नई कोशिकाएँ बनने लगती है और पुरानी नष्ट होती जाती हैं।
धूम्रपान करने वालों के साथ रहने वाले या उनके साथ लम्बा समय बिताने वाले लोगों में भी इस कैंसर का जोखिम सामान्य व्यक्तियों से 24% अधिक होता है। अमेरिका में हर साल फेफड़े के कैंसर से मरने वाले रोगियों में से 3000 रोगी इस श्रेणी के होते हैं।
ऐस्बेस्टस कई प्रकार के खनिज सिलीकेटों के रेशों को कहते हैं। इसके तापरोधी और विद्युतरोधी गुणों के कारण कई उद्योगों में इसका प्रयोग किया जाता है। यहाँ सांस लेने से ये रेशे फेफड़ों में पहुँच जाते हैं और एकत्रित होते रहते हैं। इन उद्योगों में काम करने वाले लोगों में फेफड़े के कैंसर और मेसोथेलियोमा (फेफड़ों के बाहरी आवरण प्लूरा का कैंसर) का जोखिम सामान्य लोगों से 5 गुना अधिक रहता है। यदि ये धूम्रपान भी करते हैं तो जोखिम 50-90 गुना हो जाता है। इसलिए आजकल अधिकतर उद्योगों में ऐस्बेस्टस का प्रयोग या तो प्रतिबंधित कर दिया है या सिमित कर दिया गया है।
रेडन एक प्राकृतिक, अदृष्य, गंधहीन एवं निष्क्रिय गैस है जो यूरेनियम के विघटन से बनती है। यूरेनियम के विघटन से रेडन समेत कई उत्पाद बनते हैं जो आयॉनाइजिंग विकिरण छोड़ते हैं। लेकिन रेडन एक ज्ञात कैंसरकारी है और अमेरिका में फेफड़े के कैंसर के 20000 लोगों की मृत्यु के लिए जिम्मेदार है। अर्थात रेडन फेफड़े के कैंसर का दूसरा बड़ा कारण है। रेडन गैस जमीन के अन्दर फैलती रहती है और घरों की नींव, नालियों, पाइपों आदि में पड़ी दरारों से घरों में प्रवेश कर जाती है। अमेरिका के हर 15 में से एक घर में रेडन की मात्रा खतरनाक स्तर पर अधिक आंकी गई है। भारत के भी अधिकांश इलाकों में (विशेष तौर पर ऐटानगर, गौहाटी, शिलौंग, आसाम, हमीरपुर, नागपुर, हादराबाद, सिकंदराबाद, पालमपुर, उत्तराकाशी, पुरी, कुलु, कोटा, केरेला, रांची, बंगलुरु आदि) रेडन की स्थिति चिंताजनक है।
फेफड़े के कुछ रोग जैसे टी.बी., सी.ओ.पी.डी. आदि की उपस्थिति भी कैंसर का जोखिम बढ़ती है।
गाड़ियों, उद्योगों और ऊर्जा इकाइयों से निकला धुँआ और प्रदूषण भी फेफड़े के कैसर का जोखिम बढ़ाता है।
हाल ही में हुए एक अध्ययन से संकेत मिले हैं कि फेफड़े के कैंसर के रोगी के करीबी रिश्तेदोरों (चाहे वे धूम्रपान करते हो या न करते हों) में फेफड़े के कैंसर का जोखिम अपेक्षाकृत अधिक रहता है।
फेफड़े का कैंसर को मुख्यतः दो प्रजाति के होते है। 1- स्मॉल सेल कैंसर (SCLC) और 2- नोन स्मॉल सेल कैंसर (NSCLC)। यह वर्गीकरण कैंसर की सूक्ष्म संरचना के आधार पर किया गया है। इन दोनों तरह के कैंसर की संवृद्धि, स्थलांतर और उपचार भी अलग-अलग होता है। इसलिए भी यह वर्गीकरण जरूरी माना गया है।
20% फेफड़े के कैंसर स्मॉल सेल कैंसर (SCLC) प्रजाति के होते हैं। यह बहुत आक्रामक होता हैं और बड़ी तेजी से फैलता है। यह हमेशा धूम्रपान करने से होता है। स्मॉल सेल कैंसर के सिर्फ 1% रोगी ही धूम्रपान नहीं करने वाले होते हैं। यह शरीर के दूरस्थ अंगों में तेजी से स्थलांतर करता है। प्रायः निदान के समय भी ये शरीर के कई हिस्सों में फैल चुका होता है। अपनी विशिष्ठ सूक्ष्म संरचना के कारण इसे ओट सेल कार्सिनोमा भी कहते हैं।
सबसे व्यापक प्रजाति है। 80% फेफड़े के कैंसर नोन स्मॉल सेल कैंसर प्रजाति के होते हैं। इन्हें सूक्ष्म संरचना के आधार पर निम्न उप-प्रजातियों में विभाजित किया गया है।
यह सबसे व्यापक (50% तक) उपजाति है। यह धूम्रपान से सम्बन्धित है लेकिन धूम्रपान नहीं करने वालों को भी हो सकता है। प्रायः यह फेफड़े के बाहरी हिस्से में उत्पन्न होता है। इस उपजाति में एक विशेष तरह का ब्रोंकियोऐलवियोलर कार्सिनोमा (Bronchioloalveolar carcinoma) भी शामिल किया गया है जो फेफड़े में कई जगह उत्पन्न होता है और वायु कोषों की भित्तियों के सहारे फैलता है।
पहले ऐडीनोकार्सिनोमा से अधिक व्यापक था, लेकिन आजकल इस प्रजाति की व्यापकता घट कर ऐडीनोकार्सिनोमा की मात्रा 30 % रह गई है। इसे इपिडरमॉयड कार्सिनोमा भी कहते हैं। प्रायः यह फेफड़े के मध्य की किसी श्वास नली से उत्पन्न होता है।
इसे अविभेदित कार्सिनोमा (undifferentiated carcinomas) भी कहते हैं। यह सबसे कम पाया जाता है।
कभी-कभी इस उपजाति के कई कैंसर साथ भी पाये जा सकते हैं।
फेफड़े में उपरोक्त दो मुख्य प्रजातियों के अलावा भी अन्य प्रकार के कैंसर हो सकते हैं। इनकी व्यापकता 5-10 % होती है।
5% फेफड़े के कैंसर इस प्रजाति के होते हैं। निदान के समय यह अर्बुद प्रायः छोटा (3-4 सें.मी. या छोटा) रहता है और रोगी की उम्र 40 वर्ष से कम होती है। यह धूम्रपान से सम्बन्धित नहीं होता है। कई बार यह अर्बुद हार्मोन जैसे पदार्थ का स्राव करता है जिससे कुछ विशेष लक्षण देखे जाते हैं। यह धीरे-धीरे बढ़ता और फैलता है, इसलिए निदान के समय उपचार के पर्याप्त विकल्प (शल्य क्रिया) रहते हैं।।
शरीर के कई अंगों के मूल कैंसर की कोशिकाएं रक्त-वाहिकाओं या लसिका-वाहिकाओं द्वारा चल कर फेफड़े में पहुँच कर स्थलांतर कैंसर उत्पन्न कर सकती हैं। समीप के अंगों से तो कैंसर कोशिकाएं चल कर सीधी फेफड़े में पहँच सकती हैं। स्थलांतर कैंसर में प्रायः फेफड़े के बाहरी हिस्से कई अर्बुद बन जाते हैं।
इस रोग में विविध प्रकार के लक्षण होते हैं जो अर्बुद की स्थिति और स्थलांतर पर निर्भर करते हैं। प्रारंभिक अवस्था में सामान्यतः कैंसर के स्पष्ट और गंभीर लक्षण नहीं होते हैं।
फेफड़े के कैंसर के 25% रोगियों का निदान किसी अन्य प्रयोजन से करवाये गये एक्सरे या सी.टी स्केन से होता है। प्रायः एक्सरे या सीटी में एक सिक्के के आकार की एक छाया कैंसर को इंगित करती है। अक्सर इन रोगियों को इससे कोई लक्षण नहीं होता है।
अर्बुद की संवृद्धि और फेफड़े में उसके फैलाव के कारण श्वसन लेने में बाधा उत्पन्न होती है, जिससे खांसी, श्वास कष्ट, सांस में घरघराहट (wheezing), छाती में दर्द, खांसी में खून आना (hemoptysis) जैसे लक्षण हो सकते हैं। यदि अर्बुद किसी नाड़ी का अभिभक्षण कर लेता है तो कंधे में दर्द जो बांह के पृष्ठ भाग तक फैल जाता है (called Pancoast's syndrome) या ध्वनि यंत्र (vocal cords) में लकवे के कारण आवाज में कर्कशता (hoarseness) आ जाती है। यदि अर्बुद ने भोजन नली पर आक्रमण कर दिया है तो खाना निगलने में दिक्कत (dysphagia) हो सकती है। यदि अर्बुद किसी बड़ी श्वास नली को अवरुद्ध कर देता है तो फेफड़े का वह हिस्सा सिकुड़ जाता है, उसमें संक्रमण (abscesses, pneumonia) हो सकता है।
फेफड़े का कैंसर तेजी से रक्त-वाहिकाओं या लसिका-वहिकाओं द्वारा दूरस्थ अंगो में पहुँच जाता है। अस्थि, एडरीनल ग्रंथि, मस्तिष्क और यकृत स्थलान्तर के मुख्य स्थान हैं। इसे याद रखने का स्मृति-सूत्र Babul (Bone, Adrenal glands, Brain and Liver) है। यदि इस कैंसर का स्थलांतर हड्डियों में हो जाता है तो उस स्थान पर बहुत तेज दर्द होता है। यदि कैंसर मस्तिष्क में पहुँच जाता है तो सिर दर्द, दौरा, नजर में धुँधलापन, स्ट्रोक के लक्षण जैसे शरीर के कुछ हिस्सों में कमजोरी या सुन्नता आदि लक्षण हो सकते हैं।
इस कैंसर में कई बार कैंसर कोशिकाएं हार्मोन की तरह कुछ रसायनों का स्राव करती हैं, जिनके कारण कुछ विशेष लक्षण होते हैं। ये पेरानीओप्लास्टिक लक्षण प्रायः स्माल सेल कार्सिनोमा में होते हैं, परन्तु किसी भी प्रजाति के कैंसर में हो सकते हैं। कुछ स्माल सेल कार्सिनोमा (NSCL) ऐडीनोकोर्टिकोट्रोफिक हार्मोन (ACTH) का स्राव करते हैं, जिसके फलस्वरूप ऐडरीनल ग्रंथियाँ अधिक कोर्टिजोल हार्मोन का स्राव करती हैं और रोगी में कशिंग सिन्ड्रोम रोग के लक्षण हो सकते हैं। इसी तरह कुछ नोन स्माल सेल कार्सिनोमा (NSCLC) पेराथायरॉयड हार्मोन जैसा रसायन बनाते हैं जिससे रक्त में कैल्शियम का स्तर बढ़ जाता है।
जैसे कमजोरी, वजन कम होना, थकावट, अवसाद और मनोदशा विकार (Mood swing) हो सकते हैं।
यदि रोगी को निम्न लक्षण हों तो तुरन्त चिकित्सक से सम्पर्क करना चाहिये। •तेज खांसी आती हो या पुरानी खांसी अचानक बढ़ जाये। •खांसी में खून आना। •छाती में दर्द। •तेज ब्रोंकाइटिस या बार-बार श्वसन पथ में संक्रमण हो रहा हो। •अचानक वजन कम हुआ हो या थकावट होती हो। •श्वासकष्ट या सांस लेने में घरघराहट होती हो।
पूछताछ और रोगी के परीक्षण से चिकित्सक को अक्सर कुछ लक्षण और संकेत मिल जाते हैं जो कैंसर की तरफ इँगित करते हैं। वह धूम्रपान, खांसी, सांस लेने में कोई तकलीफ, श्वसनपथ में कोई रुकावट, संक्रमण आदि के बारे विस्तार से जान लेता है। त्वचा या श्लेष्मकला का नीला पड़ना रक्त में ऑक्सीजन की कमी का संकेत देता है। नाखुनों के आधार का फूल जाना चिरकारी फेफड़े के रोग को दर्शाता है।
फेफड़े सम्बन्धी किसी भी नये लक्षण के लिए छाती का एक्सरे पहली सुगम जांच है। कई बार फेफड़े के एक्सरे में दिखाई देने वाली छाया कैंसर का संदेह मात्र पैदा करती है। लेकिन एक्सरे से यह सिद्ध नहीं होता है कि यह छाया कैंसर की ही है। इसी तरह फेफड़े में अस्थिकृत पर्विका (calcified nodules) या सुगम अर्बुद जैसे हेमर्टोमा एक्सरे में कैंसर जैसे ही दिखाई देते हैं। इसलिए अंतिम निदान हेतु अन्य परीक्षण किये जाते हैं।
फेफड़े के कैंसर तथा स्थलांतर कैंसर के निदान हेतु छाती, उदर और मस्तिष्क का सी.टी. स्केन किया जाता है। यदि छाती के एक्सरे में कैंसर के संकेत स्पष्ट दिखाई नहीं दें या गांठ के आकार और स्थिति की पूरी जानकारी नहीं मिल पाये तो सी.टी. स्केन किया जाता है। सी.टी. स्केन में मशीन एक बड़े छल्ले के आकार की होती है जो कई दिशाओं से एक्सरे लेती है और कम्प्यूटर इन सूचनाओं का विश्लेषण कर संरचनाओं को अनुप्रस्थ काट के रूप प्रदर्शित करता है। सी.टी. स्केन द्वारा ली गई तस्वीरें सामान्य एक्सरे से अधिक स्पष्ट और निर्णायक होती हैं। सी.टी. प्रायः उन छोटी गाठों को भी पकड़ लेता है जो एक्सरे में दिखाई नहीं देती हैं। प्रायः सी.टी. स्केन करने के पहले रोगी की शिरा में रेडियो ओपेक कॉन्ट्रास्ट दवा छोड़ दी जाती है जिससे अंदर के अवयव और ऊतक और उनकी स्थिति ज्यादा साफ और उभर कर दिखाई देती है। कॉन्ट्रास्ट दवा देने के पहले सेन्सिटिविटी टेस्ट किया जाता है। कई बार इससे हानिकारक प्रतिक्रिया के लक्षण जैसे खुजली, पिश्ती, त्वचा में चकत्ते आदि हो सकते हैं। लेकिन इससे जानलेवा ऐनाफाईलेक्टिक प्रतिक्रिया (Anaphylactic reaction) विरले रोगी में ही होती है। पेट के सी.टी. स्केन से यकृत और ऐडरीनल ग्रंथि के स्थलांतर कैंसर का पता चलता है। सिर के सी.टी.स्केन से मस्तिष्क के स्थलांतर कैंसर का पता चलता है।
एम.आर.आई. अर्बुद (Tumor) की स्पष्ट और विस्तृत छायांकन के लिए अधिक उपयुक्त है। एम आर आई चुम्बक, रेडियो तरंगों और कम्प्यूटर की मदद से शरीर के अंगों का छायांकन करती है। सी.टी.स्केन की तरह ही रोगी को एक चलित शैया पर लेटा दिया जाता है और छल्लाकार मशीन में से गुजारा जाता है। इसके कोई पार्ष्व प्रभाव नहीं हैं और विकिरण का जोखिम भी नहीं है। इसकी तस्वीरें अधिक विस्तृत होती हैं और यह छोटे सी गांठों को भी पकड़ लेती है। हृदय में पेसमेकर, धातु के इम्प्लांट या हृदय के कृत्रिम कपाट धारण किये व्यक्ति के लिए एम.आर.आई. उपयुक्त नहीं है क्योंकि यह इसका चुम्बकीय बल धातु से बनी संरचनाओं को खराब कर सकता है।
यह सबसे संवेदनशील, विशिष्ट और मंहगी जांच है। इसमें रेडियोएक्टिव लेबल्ड मेटाबोलाइट्स जैसे फ्लोरीनेटेड ग्लूकोज [18 FDG] का प्रयोग किया जाता है और अर्बुद के चयापचय, वाहिकावर्धन (vascularization), ऑक्सीजन की खपत और अर्बुद की अभिग्रहण स्थिति (receptor status) की सटीक, विस्तृत, बहुरंगी और त्रिआयामी तस्वीरें और जानकारी मिलती है। जहाँ सी.टी. और एम.आर.आई. सिर्फ अर्बुद की संरचना की जानकारी देते हैं, वहीं पी.ई.टी. ऊतकों की चयापचय गतिविधि और क्रियाशीलता की भी सूचनाएं देता है। पी.ई.टी. स्केन अर्बुद की संवृद्धि की जानकारी भी देता है और यह भी बता देता है कि अर्बुद किस प्रकार की कैंसर कोशिकाएं से बना है।
रोगी को क्षणिक अधजीवी रेडियोधर्मी (short half-lived radioactive drug) दवा दी जाती है और दो छाती के एक्सरे जितना रेडियेशन दिया जाता है। यह दवा अन्य ऊतकों की अपेक्षा अमुक ऊतकों (जैसे कैंसर) में अधिक एकत्रित होती है, जो दी गई दवा पर निर्भर करता है। रेडियेशन के प्रभाव से यह दवा पोजिट्रोन नामक कण छोड़ती है, जो शरीर में विद्यमान इलेक्ट्रोन्स से क्रिया कर गामा रेज़ बनाते हैं। मशीन का स्केनर इन गामा रेज़ को रिकॉर्ड कर लेता है और रेडियोधर्मी दवा को ग्रहण करने वाले ऊतकों को प्रदर्शित कर देता है। उदाहरण के लिए ग्लूकोज (सामान्य ऊर्जा का स्रोत) मिली रेडियोधर्मी दवा बतलायेगी कि किन ऊतकों ने ग्लूकोज का तेजी से उपभोग किया जैसे विकासशील और सक्रिय अर्बुद। पी.ई.टी. स्केन को सी.टी. स्केन से जोड़ कर संयुक्त मशीन पी.ई.टी. - सी.टी. भी बना दी गई है। यह तकनीक कैंसर का चरण निर्धारण पी.ई.टी. से अधिक बेहतर करती है और कैंसर के निदान में एक वरदान साबित हुई है।
बोन स्केन द्वारा हड्डियों के चित्र कम्प्यूटर के पटल या फिल्म पर लिए जाते हैं। चिकित्सक बोन स्केन यह जानने के लिए करवाते हैं कि फेफड़े का कैंसर हड्डियों तक तो नहीं पहुँच गया है। इसके लिए रोगी की शिरा में एक रेडियोधर्मी दवा छोड़ी जाती है। यह दवा हड्डियों में उस जगह एकत्रित हो जाती है जहाँ स्थलांतर कैंसर ने जगह बना ली है। मशीन का स्केनर रेडियोधर्मी दवा को ग्रहण कर लेता है और हड्डी का चित्र फिल्म पर उतार लेता है।
फेफड़े के कैंसर का अंतिम निदान तो रोगविज्ञानी अर्बुद या कैंसर कोशिकाओं की सूक्ष्मदर्शी जांच के बाद ही करता है। इसके लिए एक सरल तरीका बलगम की सूक्ष्मदर्शी जाँच करना है। यदि अर्बुद फेफड़े के मध्य में स्थित है और श्वासनली तक बढ़ चुका है तो बलगम में कैंसर कोशिकाएं दिखाई पड़ जाती हैं। यह सस्ती और जोखिमरहित जाँच है। लेकिन इसका दायरा सिमित है क्योंकि बलगम में हमेशा कैंसर कोशिकाएँ नहीं दिखाई देती है। कई बार साधारण कोशिकाएं भी संक्रमण या आघात के कारण कैंसर कोशिकाओं की तरह लगती हैं।
नाक या मुँह द्वारा श्वासनली में प्रकाश स्रोत से जुड़ी पतली और कड़ी या लचीली फाइबरओप्टिक नली (ब्रोंकोस्कोप) डाल कर श्वसनपथ और फेफड़े का अवलोकन किया जाता है। अर्बुद दिखाई दे तो उसके ऊतकों का नमूना ले लिया जाता है। ब्रोंकोस्कोपी से प्रायः बड़ी श्वसनलियों और फेफड़े के मध्य में स्थित अर्बुद आसानी से देखे जा सकते हैं। यह जाँच ओ.पी.डी. कक्ष, शल्य कक्ष या वार्ड में की जा सकती है। इसमें रोगी को तकलीफ और दर्द होता है इसलिए नींद या बेहोशी की सुई लगा दी जाती है। यह जाँच अपेक्षाकृत सुरक्षित है फिर भी अनुभवी विशेषज्ञ द्वारा की जानी चाहिये। यदि अर्बुद दिखाई दे जाये और उसका नमूना ले लिया जाये तो कैंसर का निदान संभव हो जाता है। इस जाँच के बाद कुछ रोगियों को 1 या 2 दिन तक खांसी में गहरा भूरा खून आ सकता है। इसकी गंभीर जटिलताओं में रक्तस्राव होना, रक्त में ऑक्सीजन कम होना, हार्ट ऐरिदमिया आदि हो सकते हैं।
यह सबसे सामान्य जाँच है जिसमें सोनोग्राफी या सी.टी. स्केन के दिशा निर्देश में सुई फेफड़े में कैंसर की गाँठ तक घुसाई जाती है और सूक्ष्मदर्शी जाँच हेतु कोशिकाओं के नमूने ले लिए जाते हैं। यदि कैंसर की गाँठ फेफड़े के बाहरी हिस्सें में स्थित है और जहाँ ब्रोंकोस्कोप नहीं पहुँच पाता है तब यह तकनीक बहुत उपयोगी साबित होती है। इसके लिए छाती की त्वचा में सुन्न करने की सुई लगाई जाती है। उसके बाद छाती में एक लम्बी सुई कैंसर की गाँठ तक घुसाई जाती है। सोनोग्राफी या सी.टी. स्केन की मदद अर्बुद तक सुई घुसाना आसान हो जाता है और फिर सुई में सिरिंज लगा कर कोशिकाओं को खींच लिया जाता है। लेकिन कभी कभी रोगविज्ञानी सही जगह से ऊतक लेने में कामयाब नहीं हो पाता है। इस तकनीक में न्यूमोथोरेक्स होने का जोखिम रहता है।
कभी कभी कैंसर फेफड़े के बाहरी आवरण, जिसे प्लूरा कहते हैं, तक भी पहुँच जाता है और इस कारण फेफड़े और छाती के बीच के स्थान में तरल (called a pleural effusion) इकट्ठा हो जाता है। इस तरल को सुई द्वारा निकाल कर उसमें सूक्ष्मदर्शी से कैंसर कोशिकाओं की जाँच की जाती है। इस तकनीक में भी न्यूमोथोरेक्स का थोड़ा जोखिम रहता है।
यदि उपरोक्त सभी तरीकों से भी कैंसर का निदान नहीं हो पाये तो शल्य ही अन्तिम विकल्प बचता है। पहला विकल्प मीडियास्टिनोस्कोपी है, जिसमें दोनों फेफड़ों के बीच में शल्य द्वारा एक प्रोब घुसा कर अर्बुद या लसिकापर्व से कोशिकाओं के नमूने ले लिए जाते हैं। दूसरा विकल्प थोरेकोटोमी है जिसमें छाती को खोल कर कैंसर कोशिकाओं के नमूने ले लिए जाते हैं। इन शल्य क्रियाओं के द्वारा अर्बुद को पूरी तरह निकालना संभव नहीं हो पाता है। इसके लिए रोगी को भर्ती किया जाता है और शल्य क्रिया शल्य कक्ष में ही की जाती है। साथ ही रक्तस्राव, संक्रमण, निश्चेतन और अन्य दवाओं के कुप्रभावों का जोखिम रहता है।
वैसे तो अकेले खून के सामान्य परीक्षण से कैंसर का निदान संभव नहीं है, लेकिन इनसे कैंसर के कारण पैदा हुए रसायनिक या चयापचय विकारों की जानकारी मिल जाती है। जैसे कैल्शियम और एंजाइम अल्कलाइन फोस्फेटेज के स्तर का बढ़ना अस्थि में स्थलांतर कैंसर के संकेत देता है। इसी तरह ऐस्पार्टेट अमाइनोट्रांसफरेज (SGOT) और एलेनाइन अमाइनोट्रांसफरेज (SGPT) का बढ़ना यकृत की रुग्णता को दर्शाता है जिसका संभवतः कारण यकृत में स्थलांतर कैंसर होना चाहिये। इस कैंसर के निदान हेतु रक्त के निम्न परीक्षण किये जाने चाहिये।
नॉन स्मॉल सेल दोनों प्रजाति के कैंसर में सी.ए.125 और सी.ई.ए. ट्यूमर मार्कर्स की जांच की जानी चाहिये।
कैंसर की गांठो के आकार, निकटस्थ संरचनाओं, लसिकापर्वों (Lymph nodes) और दूरस्थ अंगों में कैंसर के फैलाव तथा विस्तार के आधार पर फेफड़े के कैंसर को विभिन्न चरणों में वर्गीकृत किया जाता है। चरण निर्धारण उपचार और फलानुमान की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। हर चरण के लिए अलग तरह के उपचार दिये जाते हैं। चिकित्सक कई तरह की जांच जैसे रक्त के परीक्षण, एक्सरे, सी.टी.स्केन, बोन स्केन, एम.आर.आई.स्केन, पी.ई.टी.स्केन आदि करता है और उनके आधार पर चरण निर्धारण करता है।
स्मॉल सेल कार्सिनोमा को दो चरणों में बांटा गया है। सिमित चरण Limited-stage (LS) SCLC – इसमें कैंसर छाती के भीतर ही सिमित रहता है। विस्तृत चरण extensive-stage (ES) SCLC इसमें कैंसर छाती से बाहर शरीर के कई अंगों तक फैल चुका होता है।
मूल गाँठ T TXमूल गाँठ का आंकलन नहीं हो सका है, या बलगम अथवा श्वास नली से लिए गये नमूनों में भले कैंसर कोशिकाएं देखी गई हो लेकिन ब्रोंकोस्कोपी या छायांकन परीक्षण में गाँठ नहीं पाई गई हो।
T0मूल कैंसर के कोई साक्ष्य विद्यमान नहीं हैं।
Tisस्वस्थानी कैंसर (Carcinoma in situ)
Tगाँठ ≤ 3 सेंमी. अधिकतम माप में, जो फेफड़े या विसरल प्लूरा से घिरी हो, ब्रोंकोस्कोपी में कैंसर के कोई संकेत नहीं मिले हों
T1
T2गाँठ > 3 सेंमी. लेकिन ≤ 7 सेंमी. अधिकतम माप में, या गांठ जो निम्न जगह फैल चुकी हो।
T2aगाँठ > 3 सेंमी. लेकिन ≤ 5 सेंमी. अधिकतम माप में
T2bगाँठ > 5 सेंमी. लेकिन ≤ 7 सेंमी. अधिकतम माप में
T3गांठ > 7 सेंमी. अधिकतम माप में या कैंसर इन जगह फैल चुका हो।
T4किसी भी नाप की गांठ जो मीडियास्टिनम, हृदय, बड़ी रक्त वाहियाएँ, ट्रेकिया, लेरिंजियल नर्व, भोजन नली, वर्टीब्रल बॉडी, केरीना या फेफड़े के उसी खण्ड में अन्य गांठ में से किसी एक संरचना में फैल चुकी हो।
स्थानिक लसिकापर्व स्थलांतर N
N0स्थानिक लसिकापर्व (Local Lymph nodes) में कोई स्थलांतर नहीं हुआ हो
N1समपार्ष्वी (ipsilateral) परिश्वासनलिका (peribronchial) और/या विदर (hilar) और अंतरफुफ्फुसीय (intrapulmonary) लसिकापर्व में स्थलांतर हुआ हो
N2समपार्ष्वी मध्यस्थानिका (ipsilateral mediastinal) और या सबकेरिना लसिकापर्व में स्थलांतर हुआ हो
N3प्रतिपक्षी (contralateral) मध्यस्थानिका (mediastinal), विदर (hilar) या अधिजत्रुकीय (supraclavicular) लसिकापर्व में स्थलांतर हुआ हो
दूरस्थ स्थलांतर M
M0दूरस्थ स्थलांतर नहीं हुआ हो
M1दूरस्थ स्थलांतर हुआ हो (Distant metastasis)
M1aप्रतिपक्षी (contralateral) फेफड़े के किसी खण्ड में गांठ हो, गांठ के साथ प्लूरा में कोई नोड्यूल हो या दुर्दम फुफ्फुसावरणीय निःसरण {malignant pleural (or pericardial) effusion} हुआ हो
N1bदूरस्थ स्थलांतर हुआ हो
ऐलोपेथी में फेफड़े के कैंसर का मुख्य उपचार शल्य द्वारा कैंसर का उच्छेदन, कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी या इनका संयुक्त उपचार है। उपचार सम्बन्धी निर्णय कैंसर के आमाप, स्थिति, संवृद्धि, विस्तार, स्थलांतर और रोगी की उम्र तथा उसके स्वास्थ्य पर निर्भर करता है।
अन्य कैंसर की तरह ही फेफड़े के कैंसर का उपचार भी उपचारात्मक (कैंसर का उच्छेदन या रेडियेशन) या प्रशामक (palliative यदि कैंसर का उपचार संभव नहीं हो तो दर्द और तकलीफ कम करने हेतु दिये जाने वाले उपचार को प्रशामक उपचार कहते हैं) हो सकता है। प्रायः एक से अधिक तरह के उपचार दिये जाते हैं। जब कोई उपचार मुख्य उपचार के प्रभाव को बढ़ाने के लिए दिया जाता है तो उसे सहायक उपचार (adjuvant therapy) कहते हैं। जैसे शल्य-क्रिया के बाद बचे हुई कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए कीमोथेरेपी या रेडियोथेरेपी सहायक उपचार के रूप में दी जाती है। यदि उपचार शल्य के पहले अर्बुद को छोटा करने के लिए दिया जाता है तो उसे नव सहायक उपचार (Neo adjuvant therapy) कहते हैं।
कैंसर का उच्छेदन सबसे उपयुक्त उपचार है यदि कैंसर फेफड़े के बाहर नहीं फैल सका है। कैंसर का उच्छेदन नोन स्माल सेल कैंसर के कुछ चरणों (चरण I या कभी कभी चरण II) में किया जाता है। अमूमन इस कैंसर के 10%-35% रोगियों में शल्य क्रिया की जाती है, लेकिन रोगी को पूरी राहत नहीं मिल पाती है क्योंकि कैंसर निदान के समय ही कैंसर बहुत फैल चुका होता है और शल्य-क्रिया के बाद कैंसर कभी भी दोबारा उत्पन्न हो जाता है। जिन रोगियों में धीमी गति से बढ़ने वाले एकाकी कैंसर का शल्य किया जाता है, उनमें से 25%-40% रोगी पांच साल जी ही लेते हैं। कई बार रोगी का कैंसर संरचनात्मक दृष्टि से तो शल्य योग्य होता है लेकिन रोगी की गंभीर हालत (जैसे हृदय या फेफड़े का कोई बड़ा रोग हो) के कारण शल्य करना जोखिम भरा काम हो सकता है। स्माल सेल कैंसर में शल्य-क्रिया की संभावना अपेक्षाकृत कम रहती है। क्योंकि यह तेजी से फैलता है और फेफड़े के एक हिस्से में सिमित हो कर नहीं रह पाता है।
शल्य क्रिया अर्बुद के आमाप और स्थिति पर निर्भर करती है। यह बड़ी शल्य क्रिया है, रोगी को भर्ती करना पड़ता है और शल्य के बाद भी लम्बे समय तक देखभाल हेतु अस्पताल में ही रखना पड़ता है। इसमें रोगी को बेहोश किया जाता है और छाती को खोलना पड़ता है। इसके बाद शल्य-कर्मी फेफड़े का एक हिस्सा (wedge resection), फेफड़े का एक खण्ड (lobectomy) या पूरा फेफड़ा (pneumonectomy) निकाल लेता है। कभी-कभी फेफड़े में स्थित लसिकापर्व (lymphadenectomy) भी निकाले जाते हैं। शल्य के बाद रोगी को श्वास कष्ट, सांस उखड़ना, दर्द और कमजोरी रहती है। रक्त स्राव, संक्रमण और निश्चेतन के कुप्रभाव शल्य के मुख्य खतरे हैं।
रेडियोथेरेपी स्मॉल सेल और नॉन स्मॉल सेल दोनों प्रजाति के कैंसर में दी जाती है। रेडियेशन उपचार में शक्तिशाली एक्सरे या अन्य प्रकार के रेडियेशन द्वारा विकासशील कैंसर कोशिकाओं को मारा जाता है। रेडियोथेरेपी उपचारात्मक (Curative), प्रशामक (Palliative) या अन्य उपचार (शल्य या कीमो) के साथ सहायक उपचार के रूप दिया जाता है। रेडियेशन या तो बाहर से मशीन को कैंसर पर कैंद्रित करके दिया जाता है या रेडियोधर्मी पदार्थ से भरे छोटे से केप्स्यूल शरीर में कैंसर की गांठ के पास अवस्थित करके दिया जाता है। ब्रेकीथेरेपी में ब्रोंकोस्कोप द्वारा रेडियोधर्मी पदार्थ से भरे छोटे से पेलेट को कैंसर की गांठ में या पास की किसी श्वासनली में अवस्थित कर दिया जाता है। इसमें पेलेट से रेडियेशन छोटी सी दूरी तय करता है इसलिए यह आसपास के स्वस्थ ऊतकों को नुकसान बहुत कम करता है। ब्रेकीथेरेपी कैंसर का गाँठ को छोटा करने और श्वासनली में स्थित कैंसर के कारण उत्पन्न लक्षण के उपचार के लिए प्रचलित है। यदि रोगी शल्य-क्रिया के लिए मना कर देता है, उसका कैंसर लसिकापर्व या श्वासनली तक इतना फैल चुका है कि शल्य-क्रिया संभव ही नहीं है या किसी अन्य गंभीर रोग के कारण उसकी शल्य-क्रिया करना मुनासिब नहीं है तो उसे रेडियोथेरेपी दी जाती है। रेडियेशन जब मुख्य उपचार के रूप में दिया जाता है तो यह सिर्फ गांठ को छोटी करता है या उसके विकास को सिमित रखता है, जिससे रोगी कुछ समय तक स्वस्थ बना रहता है। 10%-15% रोगी लम्बे समय तक स्वस्थ जीवन जी लेते हैं। रेडियोथेरेपी के साथ कीमोथेरेपी भी दी जाती है तो जीने की आस थोड़ी और बढ़ जाती है। बाहर से दी जाने वाली रेडियोथेरेपी ओ.पी.डी.विभाग में दी जाती है, लेकिन आंतरिक रेडियोथेरेपी देने के लिए रोगी को एक या दो दिन के लिए भर्ती करना पड़ता है। यदि रोगी को कैंसर के अलावा कोई अन्य गंभीर फेफड़े का रोग है तो रेडियोथेरेपी नहीं दी जा सकती है क्योंकि फेफड़े की हालत और अधिक खराब होने का खतरा रहता है। एक विशेष तरह की गामा नाइफ नामक बाह्य रेडियोथेरेपी मस्तिष्क में एकाकी स्थलांतर कैंसर के लिए दी जाती है। इसमें सिर को स्थिर करके रेडियेशन के कई पुंजों को कैंसर पर केंद्रित करके कुछ मिनट या घन्टों के लिए रेडियेशन दिया जाता है। इसमें स्वस्थ ऊतकों को रेडियेशन की अपेक्षाकृत कम मात्रा मिलती है।
बाह्य रेडियेशन थेरेपी में उपचार से पहले सी.टी.स्केन, कम्प्यूटर और सही नाप के मदद से सिमुलेशन द्वारा यह पता कर लिया जाता है कि रेडियेशन किस जगह केंद्रित हो रहा है। इसमें 30 मिनट से दो घन्टे का समय लगता है। बाहरी रेडियेशन सप्ताह में 4 या 5 दिन कई सप्ताह की अवधि तक दिया जाता है।
रेडियेशन थेरेपी में शल्य-क्रिया की तरह बड़े जोखिम नहीं रहते हैं, लेकिन कुछ अप्रिय कुप्रभाव जैसे थकावट और कमजोरी तो होते ही हैं। श्वेत रक्त कण कम होना (इससे संक्रमण होने का खतरा रहता है) या बिंबाणु (Platelets) कम होना (इससे रक्तस्राव का खतरा रहता है) भी रेडियेशन के कुप्रभाव हैं। यदि रेडियेशन पाचन अंगों पर भी पड़ता है तो मिचली, उबकाई आना या दस्त लग सकते हैं। त्वचा में खुजली और जलन हो सकती है।
स्मॉल सेल और नॉन स्मॉल सेल दोनों प्रजाति के कैंसर में कीमोथेरेपी दी जाती है। कीमोथेरेपी में दवाएं कैंसर कोशिकाओं को मारने या उनके तेजी होने वाले विभाजन को रोकने के लिए दी जाती हैं। कीमोथेरेपी को उपचारात्मक, शल्य-क्रिया या रेडियोथेरेपी के साथ सहायक उपचार के रूप में दी जाती है। वैसे तो आजकल बहुत सारी कीमो दवाएँ प्रचलित हैं लेकिन फेफड़े के कैंसर में प्लेटिनमयुक्त दवाएं जैसे सिसप्लेटिन या कार्बोप्लेटिन सबसे प्रभावशाली साबित हुई हैं।
लगभग सभी स्मॉल सेल कैंसर में कीमोथेरेपी ही सबसे मुफीद इलाज है, क्योंकि निदान के समय ही यह प्रायः पूरे शरीर में फैल चुका होता है। स्मॉल सेल कैंसर के सिर्फ आधे रोगी ही कीमोथेरेपी के बिना चार महीने जी पाते हैं। लेकिन कीमो के बाद उनका जीवन लम्बा तो होता ही है। नॉन स्मॉल सेल कैंसर में अकेली कीमो इतनी असरदार साबित नहीं हुई है, लेकिन यदि कैंसर का स्थलांतर हो चुका है तो कई रोगियों का जीवन काल तो बढ़ता ही है।
कीमोथेरेपी गोलियों, शिरा मार्ग या दोनों तरीके से दी जाती है। कीमो प्रायः ओ.पी.डी. विभाग में दी जाती है। एक चक्र में पूर्व निर्धारित नियमानुसार कुछ दवाएँ दी जाती है, इसके बाद थोड़े समय के लिए रोगी के विराम दिया जाता है। इस दौरान वह कीमो के कुप्रभावों के कष्ट पाता है और फिर धीरे-धीरे उनसे मुक्त हो जाता है तो अगला चक्र दिया जाता है। इस तरह कीमो के कई चक्र दिये जाते हैं। दुर्भाग्यवश कीमो में दी जाने वाली दवाएँ स्वस्थ कोशिकाओं को भी क्षतिग्रस्त करता है जिससे कई अप्रिय और कष्टदायक कुप्रभाव होते हैं। श्वेत रक्त कण कम होना (इससे संक्रमण होने का खतरा रहता है) या बिंबाणु कम होना (इससे रक्तस्राव का खतरा रहता है) कीमो के प्रमुख कुप्रभाव हैं। थकावट, बाल झड़ना, मिचली, उबकाई, दस्त, मुँह में छाले पड़ जाना आदि अन्य कुप्रभाव हैं। कीमो के कुप्रभाव दवा की मात्रा, मिश्रण में दी जाने वाली अन्य दवा और रोगी के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। दवा के कुप्रभाव के लिए भी कुछ विशेष दवाएं दी जाती हैं।
स्मॉल सेल फेफड़े के कैंसर में कीमोथेरेपी के प्रचलित रिजीम निम्न लिखित हैं।
PE रिजीम
PEC रिजीम
CAV रिजीम
CAVE
एक दवा वाली रिजीम
पुनरावृत्ति कैंसर में निम्न कीमोथेरेपी दी जाती है।
टोपोटेकॉन यदि रोगी को हृदयरोग हो और डोक्सोरुबीसिन देना संभव नहीं हो क्योंकि हृदय को नुकसान पहुँचाती है।
AUC = area under the concentration curve; bid = twice daily; IV = administered intravenously; PO = administered orally.
नॉन स्माल सेल फेफड़े के कैंसर में कीमोथेरेपी बहुत ज्यादा प्रभावशाली साबित नहीं हुई है।
प्रायः सिसप्लेटिन या कार्बोप्लेटिन (Paraplatin) के साथ निम्न में से कोई एक दवा दी जाती है।
स्मॉल सेल कैंसर प्रायः मस्तिष्क में भी फैलता है। इसलिए कई बार स्मॉल सेल कैंसर के रोगी को मस्तिष्क में पहुँच चुकी कैंसर कोशिकाओं (called micrometastasis) को मारने के लिए सुरक्षात्मक रेडियोथेरेपी दी जाती है, भले मस्तिष्क में स्थलांतर सम्बन्धी कोई लक्षण नहीं हो और न ही सी.टी. या एम.आर.आई. द्वारा स्थलांतर के कोई सुराग मिले हों। मस्तिष्क को रेडियेशन देने के कुछ अल्पकालीन कुप्रभाव जैसे अल्पकालीन स्मृति-लोप (Short term memory loss), थकावट, मिचली आदि होते हैं।
यदि कैंसर की शल्य-क्रिया, कीमोथेरेपी और/या रेडियेशन द्वारा उपचार करने के बाद कैंसर दोबारा आक्रमण कर देता है तो इसे आवर्ती या पुनरावृत्ति कैंसर कहते हैं। यदि पुनरावृत्ति कैंसर फेफड़े में किसी एक जगह अवस्थित है तो शल्य किया जा सकता है। पुनरावृत्ति कैंसर में प्रायः कीमो की वे दवाएं काम नहीं करती हैं जो पहले दी जा चुकी हैं। इसलिए अन्य दवाएं दी जाती हैं।
यदि फेफड़े और कई अन्य कैंसर का नया उपचार है। सभी प्रजाति और चरणों में दिया जा सकता है। इसमें एक फोटोसिंथेसाइजिंग पदार्थ (जैंसे पोरफाइरिन जो शरीर में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है) शल्य-क्रिया के कुछ घन्टे पहले शिरा में छोड़ दिया जाता है। यह पदार्थ तेजी से विभाजित हो रही कोशिकाओं (जैसे कैंसर कोशिकाएँ) में फैल जाता है। मुख्य क्रिया में चिकित्सक अमुक वैवलैंथ का प्रकाश कैंसर पर डालता है। यह प्रकाश ऊर्जा फोटोसिंथेसाइजिंग पदार्थ को सक्रिय कर देती है, जिसके असर से कैंसर कोशिकाएँ एक टॉक्सिन बनाती हैं। यह टॉक्सिन कैंसर कोशिकाओं को मार डालता है। इस उपचार का फायदा यह है कि यह शल्य-क्रिया से कम आक्रामक है और इसे दोबारा भी दिया जा सकता है। यह उपचार उन्हीं कैंसर में दिया जा सकता है, जिन पर आप सुगमता से प्रकाश डाल सकते हैं और यह कई जगह फैले आक्रामक कैंसर में नहीं दिया जा सकता है। एफ.डी.ए. ने पोरफर्मर सोडियम (Photofrin) नामक फोटोसिंथेसाइजिंग पदार्थ को नॉन स्मॉल सेल (फेफड़े के कैंसर) और भोजननली के कैंसर के लिए प्रमाणित किया है।
रेडियो फ्रीक्वेंसी ऐबलेशन उपचार फेफड़े के प्रारंभिक कैंसर के लिए शल्य-क्रिया के विकल्प के रूप में उभरा है। इस तकनीक में त्वचा में एक लम्बी सुई को सी.टी. की मदद और दिशा-निर्देश में कैंसर तक घुसाया जाता है। इस सुई की नोक तक रेडियोफ्रिक्वेंसी प्रवाहित की जाती है। इससे सुई की नोक गर्म होकर कैंसर को जला देती है और कैंसर को रक्त की आपूर्ति करने वाली नसों को अवरुद्ध कर देती है। यह अमूमन दर्दरहित उपचार है और एफ.डी.ए. द्वारा फेफड़े के कैंसर समेत कई कैंसर के लिए प्रमाणित है। यह उपचार शल्यक्रिया जितना ही प्रभावशाली है और जोखिम बहुत कम है।
फेफड़े के कैंसर के लिए ऐलोपेथी में अभी तक कोई भी सफल उपचार नहीं है। इसलिए रोगी नये प्रयोगात्मक उपचार (clinical trials) भी ले सकता है। क्योंकि ये उपचार अभी प्रयोगात्मक दौर में है और चिकित्सकों के पास पर्याप्त जानकारियाँ नहीं है कि ये उपचार कितने निरापद और असरदार हैं। इसलिए रोगी जोखिम उठाते हुए यह उपचार चाहे तो ले सकता है।
नॉन स्मॉल सेल कैंसर के जिन रोगियों में कीमो काम नहीं कर पाती है, उन्हें आजकल टारगेटेड थेरेपी दी जाती है। ऐलोपेथी के बड़े बड़े कैंसर विशेषज्ञ उत्साहित होकर इस टारगेटेड थेरेपी को कैंसर उपचार में खुशी की नई लहर बता कर उत्सव मना रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हर कैंसर में एक ही दवा देने की मानसिकता अब खत्म हुई समझो। टारगेटेड थेरेपी लेने से पहले कैंसर के नमूने लेकर जांच की जाती है और पता लगाया जाता है कि अमुक कैंसर में कौन सा म्यूटेशन हुआ है। इसी के आधार पर टारगेटेड दवा का चयन किया जाता है। अमेरिका की 14 संस्थाएं यह जांच मुफ्त में कर रही है। हालांकि अभी तक कई म्यूटेशन चिन्हित किये जा चुके हैं, लेकिन सभी के लिए अभी टारगेटेड दवा विकसित नहीं हो पाई हैं। आजकल प्रायः तीन म्यूटेशन EGFR, ALK और KRAS की जांच की जाती है।
नॉन स्मॉल सेल कैंसर की उपप्रजाति ऐडीनोकार्सिनोमा के 20% से 30% रोगियों में EGFR म्यूटेशन होता है। इसमें इरलोटिनिब (Tarceva) और जेफिटिनिब (Iressa) टारगेट दवाएं दी जाती हैं। ये टाइरोसीन काइनेज इन्हिबीटर श्रेणी में आती हैं। टारगेटेड थेरेपी विशेष तौर पर कैंसर कोशिकाओं पर अभिलक्षित होती है, जिससे सामान्य कोशिकाओं की क्षति अपेक्षाकृत कम होती है। अरलोटिनिब और जेफिटिनिब इपिडर्मल ग्रोथ फेक्टर रिसेप्टर (EGFR) प्रोटीन पर अभिलक्षित होती हैं। यह प्रोटीन कोशिकाओं के विभाजन का बढ़ाने में सहायता करता है। यह प्रोटीन कई कैंसर कोशिकाओं जैसे नॉन स्मॉल सेल कैंसर कोशिकाओं के सतह पर बड़ी मात्रा में विद्यमान रहता है। यह गालियों के रूप में दी जाती हैं। ये EGFR म्यूटेशन वाले कैंसर रोगियों का जीवनकाल बढ़ाती है, लेकिन कुछ समय बाद रोगी को इस दवा से प्रतिरोध (resistance) हो जाता है। फिर भी इरलोटिनिब की एक गोली रोगी की जेब पर 4800 रुपये का फटका है।
नॉन स्मॉल सेल कैंसर के लगभग 2% से 7% रोगियों में ALK (anaplastic lymphoma kinase) म्यूटेशन होता है। ये रोगी प्रायः युवा होते हैं और धूम्रपान (1-2% का छोड़ कर) नहीं करते हैं। इसके लिए एक नई टारगेटेड दवा क्रिजोटिनिब (crizotinib) अनुमोदित की गई है। यह ALK को निष्क्रिय करती है और कैंसर की संवृद्धि को रोकती है। यह गांठ को छोटा करती है और लगभग 6 महीने तक तो स्थिर रखती है। फाइज़र कम्पनी द्वारा निर्मित यह दवा ज़लकोरी नाम से उपलब्ध है। एक महीने की दवा का खर्चा सिर्फ पांच लाख रुपये हैं। आखिर फेफड़े का कैसर एक शाही बीमारी है।
टारगेटेड थेरेपी में ऐंटीएंजियोजेनेसिस दवाएं भी शामिल की गई हैं, जो कैंसर में नई रक्त-वाहिकाओं के विकास को रोकती है। बिना रक्त-वाहिकाओं के कैंसर मर जायेगा। बिवेसिजुमेब (Avastin) नामक ऐंटीएंजियोजेनेसिस दवा को यदि कीमो के साथ प्रगतिशील कैंसर में दिया जाता है तो यह रोगी का जीवनकाल बढ़ाती है। इसे शिरा में हर दो से तीन सप्ताह में दिया जाता है। इस दवा से रक्तस्राव का जोखिम रहता है, इसलिए उन रोगियों को नहीं देना चाहिये जिनको खांसी के साथ खून आ रहा हो, जो ऐन्टीकोएगुलेंशन दवा ले रहा हो या उसका कैंसर मस्तिष्क में भी फैल गया हो। इसे स्क्वेमस सेल कार्सिनोमा में भी नहीं देना चाहिये क्योंकि इस में रक्तस्राव का खतरा रहता है।
सेटुक्सिमेब एक एंटीबॉडी है जो इपिडर्मल ग्रोथ फेक्टर रिसेप्टर से जुड़ जाती है। नॉन स्मॉल सेल कैंसर की सतह पर यदि यह EGFR व्याप्त है तो सेटुक्सिमेब से लाभ हो सकता है।
फेफड़े के कैंसर में फलानुमान का मतलब रोगी का उपचार (cure) या उसके जीवनकाल बढ़ने की संभावना से है। यह कैंसर के आमाप, प्रजाति, स्थलांतर और रोगी के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। स्मॉल सेल प्रजाति का कैंसर सबसे आक्रामक और तेजी से फैलने वाला कैंसर है और यदि उपचार नहीं किया जाये तो रोगी दो चार महीने ही जी पाता है। अर्थात दो से चार महीने में आधे रोगी मर जाते हैं। स्मॉल सेल कैंसर में रेडियेशन और कीमोथेरेपी अपेक्षाकृत अधिक असरदार मानी जाती है। क्योंकि यह कैंसर बड़ी तेजी से फैलता है और निदान के समय ही शरीर में कई जगह स्थलांतर हो चुका होता है, इसलिए शल्य या स्थानिक रेडियेशन उपचार का कोई खास महत्व नहीं है। यदि कीमोथेरेपी अकेले या अन्य उपचार के साथ दी जाती है तो रोगी का जीवन काल 4-5 गुना बढ़ने की संभावना रहती है। लेकिन सारे प्रपंच के उपरांत भी 5%-10% रोगी ही पांच वर्ष जी पाते हैं। धूम्रपान तुरन्त छोड़ना[मृत कड़ियाँ] जरूरी होता है।
नॉन स्मॉल सेल कैंसर का फलानुमान निदान के समय उसके चरण (stage) पर निर्भर करता है। यदि पहले चरण के रोगी की गांठ शल्य द्वारा निकाल दी जाती है तो 75% रोगी की पांच वर्ष जी लेते हैं। कुछ रोगियों को रेडियेशन उपचार से थोड़ी राहत मिलती है। इस कैंसर में कीमो से रोगी के जीवन काल पर विशेष फर्क नहीं पड़ता है।
अन्य कैंसर की अपेक्षा फेफड़े के कैंसर का फलानुमान बहुत खराब है। एलोपेथी के सारे उपचार और तामझाम के बावजूद सिर्फ 16% रोगी पांच वर्ष ही जी पाते हैं।
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