जलयान या पानी का जहाज़ (ship), पानी पर तैरते हुए गति करने में सक्षम एक बहुत बडा डिब्बा होता है। जलयान, नाव (बोट) से इस मामले में भिन्न भिन्न है कि जलयान, नाव की तुलना में बहुत बडे होते हैं।
जलयान झीलों, समुद्रों एवं नदियों में चलते हैं। इन्हें अनेक प्रकार से उपयोग में लाया जाता है; जैसे - लोगों को लाने-लेजाने के लिये, सामान ढोने के लिये, मछली पकडने के लिये, मनोरंजन के लिये, तटों की देखरेख एवं सुरक्षा के लिये तथा युद्ध के लिये।
जहाज समुद्र के आवागमन तथा दूर देशों की यात्रा के लिये जिन बृहद् नौकाओं का उपयोग प्राचीनकाल से होता आया है उन्हें जहाज कहते है। पहले जहाज अपेक्षाकृत छोटे होते थे तथा लकड़ी के बनते थे। प्राविधिक तथा वैज्ञानिक उन्नति के आधुनिक काल में बहुत बड़े, मुख्यत: लोहे से बने तथा इंजनों से चलनेवाले जहाज बनते हैं।
जिस जहाज से जो भी काम लिया जाता है। उसी के अनुसार उसकी अभिकल्पना (डिजइन) और निर्माण किया जाता है। अत: कार्य के अनुसार जहाजों को तीन वर्गों में बाँटते हैं :
इनके भी कई उपवर्ग होते हैं, जिनका नीचे क्रमानुसार आगे वर्णन किया गया है-
इस वर्ग में डूबते हुए जहाजों को निकालनेवाले पोत (Dredgers and Tugs) समुद्री तार बिछाने तथा उनकी मरम्मत करनेवाले (Cable Ships), तटवर्ती यात्रोपयोगी छोटे जहाज (Steamers), भोजन सामग्री ले जानेवाले (Frozen Meat Carriers), मत्स्य नौकाएँ (Trawlers) और घाट-यान-नौकाएँ (Ferries) आदि मुख्य हैं।
प्रत्येक जहाज के ढाँचे की अभिकल्पना (design) इस प्रकार से की जाती है कि उसके इंजनों, प्रणोदित्रों अथवा पैडल व्हीलों, सहायक यंत्रों तथा पंचों आदि के चलने के कारण और विशेषकर समुद्री लहरों के कारण जो विकृतियाँ तथा प्रतिबल पड़ें, उन्हें वह सह ले। जहाजों के चलते समय जब सामने की हवा का मुकाबिला करना होता है। उस समय यदि जहाज की चौड़ाई के बराबर लंबी लहरें उठने लगती हैं, तो कई बेर कोई एक ही बड़ी लहर बीच में जहाज को अधर में उठा ले सकती है। तब जहाज के आगे और पीछे क सिरे ठीक उसी प्रकर से लटकते रहेंगे जैसे कि किसी लदी हुई शहतीर को बीच में से सहारा देकर उठा लिया हो। जहाज का इस दशा को उत्तलन (ऊपर को उठा लिया जाना, hogging) कहते हैं। कभी कभी ऐसा भी होता है कि जहाज का आगे और पीछे का सिरा तो लहरों पर टिक जाता है और बीच का स्थान खाली हो जाता है, ठीक वैसा ही जैसे कोई लदी हुई शहतीर दोनों सिरों पर टिकी हो। इस परिस्थिति में जहाज के ढाँचे पर पड़नेवाले प्रतिबलों को अवतलन (sagging) कहते है। कभी कभी इन दोनों परिस्थितियों का मिश्रण भी हो जाता है, जिसमें पड़नेवाले प्रतिबल कर्तन (shear stress) कहलाते हैं। जब हवा तिरछी चलती है तब कभी कभी जहाज के ढाँचे में मरोड़ प्रतिबल (twisting strains) पड़ते हैं। जब बगली हवा चलती है तब पार्श्वीय विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त पानी में डूबे रहनेवाले भाग पर समुद्री पानी का भी अत्यधिक दाब पड़कर ढाँचे को चिपकाने की प्रवृत्ति दिखाता है। सबसे अधिक तथा विकट प्रकार की विकृतियाँ तो आगे और पीछे के सिरों पर उस समय पैदा होती हैं जब जहाज में माल के विषम लदान और लहरों के प्रभाव तथा पानी के उत्प्लावक बल के कारण जगह जगह पर नमन घूर्ण (bending moments) पैदा होने लगते हैं।
लहरों द्वारा पड़नेवाली विकृतियों की गणना करते समय मान लिया जाता है कि प्रत्येक लहर की लंबाई जहाज की चौड़ाई के बराबर और उनकी ऊँचाई लंबाई के वें भाग के उराबर है।
जहाज के ढाँचे की अभिकल्पना करते समय उसके प्रत्येक अवयव (जो ढले इस्पात का होता है अथवा मुलायम इस्पात की छड़ों, एंगल आयरनों, चैनलों, गर्डरों और प्लेटों आदि को आपस में रिबटों द्वारा बैठाकर अथवा विभिन्न प्रकार के जोड़ों द्वारा कसकर बनाया जाता है) की रचना ऐसी करते हैं कि उसपर जो भी प्रतिबल पड़े, सब में समविभाजित होकर इस प्रकार से समस्त ढाँचे में फैल जाए कि प्रत्येक अवयव पर आनेवाले झटकों को अवयव मिलकर सह लें।
जहाज का पठाण (नौतल, keel) सबसे नीचे रहनेवाला बुनियादी अवयव है, जिसके सहारे समस्त ढाँचा खड़ा किया जाता है। इसे लोहे या ढले इस्पात द्वारा तीन प्रकार से बनाया जाता है- इकहरी मोटी छड़ों, चपटी पट्टियों अथवा प्लेटों द्वारा।
मरिया (Keelson) एक से अधिक तथा विभिन्न आकार के बनाए जाते हैं। इनमें से जो प्रमुख होता है वह जहाज के पेंदे की मध्य रेखा पर खड़ा लगया जाता है। सब मिलकर समस्त पेंदे को सहारा देते हैं। पठाण के आगे के सिरे मल्लजोड़ (Scarph) द्वारा।
ऊपर को उठा हुआ जो अवयव ढले हुए इस्पात का बनाकर जोड़ा जाता है वह दुंबाल (Stern) कहलाता है। इसी में खाँचे बनाकर बीचवाला मरिया और बाहरी खोल के प्लेट बैठाकर जड़ दिए जाते हैं। पीछे की तरफ ढले इस्पात का जो खड़ा अवयव इसी प्रकार जोड़ा जाता है वह दुंबाल स्तंभ या कुदास (Sternpost) कहलाता है। रडर को सहारा देने के लिये और यदि एक या तीन प्रणोदित्र (propeller) युक्त जहाज हों तो मध्यवर्ती प्रणोदित्र के घूमने के लिये भी इसी में जगह बनाई जाती है।
जहाज के समस्त ढाँचे की रचना पंजरनुमा होती है। पंजर के समस्त अंग एंगल, आयरन और पट्टियों द्वारा ही बनाए जाते हैं। ये पंजर दोहरे होते हैं, एक भीतरी और दूसरा बाहरी। जिन स्थानों पर जहाज का निचला फर्श टिकता है, वे बाहरी और भीतरी पंजरों के बीच में खड़े लगाए जाते हैं इन्हें मरिया अथवा फ्लोर्स भी कहते हैं। इनके कारण पेंदा बहुत ही दृढ़ हो जाता है। जहाज की दोनों बगलियों के पंजरों को दृढ़ता प्रदान करने के लिये, उनके बीच में लंब पट्टियाँ तथा आड़ी स्थूणाएँ (धरनें) लगा दी जाती हैं। लंब पट्टियाँ जहाज के पंजर से ऐंगल प्लेटों के साथ रिवेटों द्वारा जड़ दी जाती हैं। संपूर्ण जहाज का पंजर कई खंडों में बनाकर प्रत्येक पंजर के ऊपरी सिरे पर भी एक एक धरन लगा दी जाती है, जो ऊपरी डेक के प्लेट को सहारा देती है।
जिन जहाजों में एक से अधिक डेक होते हैं, उनमें प्रत्येक डेक को सँभालने के लिये प्रत्येक खंड में एक एक स्थूणा लगाई जाती है। ऊपरी डेक सदैव इस्पात की प्लेटों का बनाया जाता है और उसपर लकड़ी के तख्ते बैठा दिए जाते हैं। नीचे के डेक लकड़ी के तख्तों से ही बनाए जाते हैं। कुछ जहाजों में नीचे के डेक भी इस्पात की प्लेटों से बनाते हैं। यह सब उपयोग पर निर्भर करता है। जहाज के पंजर की आड़ी धरनों के बीच, उन्हें सहारा देने के लिये एक एक खंभा भी इस्पात का लगा दिया जाता है। जिन जहाजों की चौड़ाई अधिक होती है उनके मध्य खंभे के दोनों ओर एक खंभा और लगा दिया जाता है। मालवाहक जहाजों के गोदामों में अधिक खुली जगह की आवश्यकता पड़ा करती है। अत: उनमें खंभे न लगाकर अन्य प्रकार की युक्तियों से काम लिया जाता है।
नितल पट्टिकाएँ-
ये जहाज के बाहरी आवरण से बाहर की ओर निकली रहती हैं तथा जहाज की लुंठनगति (rolling) को अवरोधित (डैम्प) करने के उद्देश्य से लगायी जातीं हैं। इनके कारण जहाज के खोल (hull) की लुंठनगति में काफी अवरोध होता है, जिससे लुंठनगति बिलकुल तो नहीं रुकने पाती, परंतु काफी कम हो जाती है।
जहाज के पेंदे पर पूरी लंबाई भर में, इस्पात के प्लेटों को ब्रैकटों द्वारा जड़कर, उनसे भीतें (bulk-heads) बनाकर जलाभेद्य कमरे बना दिए जाते हैं, जिनकी ऊँचाई दोतले पेंदे से लेकर समुद्री पानी की सतह तक होती है। ये कमरे बड़े उपयोगी होते हैं, क्योंकि जब कि दुर्घटनावश जहाज के आवरण में कहीं छेद हो जाता हैं, तब समुद्री पानी केवल उसके निकटवर्ती कमरे में ही भरकर रह जाता है और शेष जहाज सुरक्षित रहता है। कई बार जहाज की लंबाई की दिशा में लदे हुए माल का संतुलन ठीक करने के लिये किसी उपयुक्त कमरे में जान बूझकर भी पानी भर दिया जाता है। कई पुराने प्रकार के जहाजों में तो ये कमरे इस प्रकार के बने होते थे कि एक से दूसरे में जाने के लिये उनकी छत में बने छेद में चढ़कर दूसरे के छेद में उतरना होता था। आधुनिक जहाजों में उनकी दीवारों में ही दरवाजे लगा दिए जाते हैं। ये छेद और दरवाजे रबर की पट्टियाँ तथा क्लैंप लगाकर बिलकुल जलाभेद्य बना दिए जाते हैं।
व्यापारी जहाजों में अधिक से अधिक तीन डेक होते हैं। एक डेकवाले जहाज की ऊँचाई पठाण से डेक तथा १५ फुट, दो डेक वाले जहाज की ऊँचाई पठाण से ऊपरी डेक तक २४ फुट और तन डेकवाले की ३५ फुट के लगभग रहती है। लेकिन बड़े समुद्री पोतों और माल जहाजों की समग्र ऊँचाई इससे अधिक हो जाती है।
जहाजों का बाहरी आवरण - यह इस्पात की चादरों का बना होता है और उसकी मोटाई, जहाज के परिमाण, उसमें भरे जानेवाले माल तथा जिस भाग में वह जड़ा जाता है वहाँ के पानी के दबाव के अनुपात से निश्चित की जाती है। जहाज के पेंदे और अडवाल से नीचे के प्लेट, जिन्हें पेरज (Gunwale) भी कहते हैं सबसे मोटे रखे जाते हैं। मंदान तथा कुदास की निकटवर्ती प्लेटें भी काफी मोटी होती हैं। इनकी अधिक से अधिक मोटाई एक इंच होती है। आवरण प्लेटों की मोटाई इंच के २०वें भाग में नापने की प्रथा है।
जहाज के मध्य भाग में नीचे की तरफ सबसे अधिक चौड़ाई रहती है, जिसे "धरन नाप" (moulded breadth) कहते हैं। इसके ऊपर की तरफ चौड़ाई क्रमश: कम होती जाती है, जिसे जहाज के मध्य भाग का भीतरी झुकाव (Tumble home) कहते हैं। इसे ऊपर के डेक से एक ही तरफ को नापा जाता है। आगे तथा पीछे के सिरों के निकट, नीचे की ओर, जहाज की चौड़ाई क्रमश: कम होती जाती है, जिससे वहाँ के परिच्छेद की आकृति V आकार की हो जाती है। इस नीचे से ऊपर बढ़ती चौड़ाई को जहाज का अपसरण (flare अथवा flam) कहते हैं।
इनमें उनका मुख्य ढाँचा, दोहरा पंजर और लंब पट्टियाँ आदि मध्य डेक तक ही समाप्त हो जाती हैं। विहार डेक (Promenade deck) तथा नौका डेक (Boat deck) की अधिरचना ऊपरी ढाँचे के रूप में उपरले और खुले डेक पर कर दी जाती है। बड़े यात्री जहाज माल जहाजों की अपेक्षा अधिक भारी होने के साथ ही समुद्र की सतह से अधिक ऊँचे भी तैरते रहा करते हैं। अत: उन्हें अधिक दृढ़ तथा सावधानी से बनाना पड़ता है, जिससे कोई दुर्घटना हो जाने पर भी समुद्री पानी उनमें प्रवेश न कर सके।
तारपीडो नौकाओं तथा युद्धपोतों के पंजरों की बनावट तो उसी ढंग की होती है जैसी यात्री जहाजों की लेकिन उन्हें इतना दृढ़ बनाया जाता है कि वे बड़े बड़े इंजनों की चाल, तोपों के दागे जाने, अथवा जहाज की चाल को बारंबार आगे पीछे करके पैतरा बदलते समय होनेवाले कंपनों के प्रभाव की सह सकें। इनकी पठाण चपटे प्लेटों से बनाकर उसके आगे पीछे के सिरों को मंदान और कुदाल की झिरियों में डालकर मोड़ दिया जाता है। फिर उन्हें मल्ल जोड़ द्वारा पक्का भी कर दिया जाता है। बाहरी और भीतरी पठाण प्लेटों को पंजर के साथ टक्करी जोड़ (butt joint) द्वारा कसकर, नीचे की तरफ बाहरी आवरण प्लेटों की कोरों को पठाण के साथ ही जड़ देते हैं। हथियारों के गोदामों में इंजन और यंत्रों की ऊँचाई की सतह तक सुरक्षा के लिये इस्पात का मोटा कवच प्लेट लगा दिया जाता है। सबसे आगे की पोतभीत (bulk-head) तथा दुंबाल (stern) के बीच कुछ खाली जगह छोड़ दी जाती है, जिसे टक्कर पीतभीत (Collision Bulkhead) कहते हैं।
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