जरासंध महाभारत कालीन मगध राज्य के नरेश थे । सम्राट जरासंध ने बहुत से राजाओं को अपने कारागार में बंदी बनाकर रखा था पर उसने किसी को भी मारा नहीं था। इसका कारण यह था कि वह चक्रवर्ती सम्राट बनने की लालसा हेतु ही वह इन राजाओं को बंदी बनाकर रख रहा था ताकि जिस दिन 101 राजा हों और वे महादेव को प्रसन्न करने के लिए उनकी बलि दे सके।
वह मथुरा के नरेश कंस का ससुर एवं परम मित्र था उसकी दोनो पुत्रियो अस्ति और प्राप्ति का विवाह कंस से हुआ था। श्रीकृष्ण से कंस के वध का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने १७ बार मथुरा पर चढ़ाई की लेकिन जिसके कारण भगवान श्रीकृष्ण को मथुरा छोड़ कर जाना पड़ा फिर वो द्वारिका जा बसे, तभी उनका नाम रणछोड़ कहलाया।
माना जाता है कि जरासंध के पिता मगध नरेश बृहद्रथ थे और उनकी दो पटरानियां थी। वह दोनो ही को एक संतान चाहते थे। बहुत समय व्यतीत हो गया और वे बूढ़े़ हो चले थे, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। तब एक बार उन्होंने सुना की उनके राज्य में ऋषि चंडकौशिक पधारे हुए हैं और वे एक आम के वृक्ष के नीचे विराजमान हैं। यह सुनते ही राजन आशापूर्ण होकर ऋषि से मिलने चल दिए। ऋषि के पास पहुँच कर उन्होंने ऋषि को अपना दुख कह सुनाया। राजा का वृतांत सुनकर ऋषि को दया आ गई और उन्होंने नरेश को एक आम दिया और कहा की इसे अपनी रानी को खिला देना। लेकिन चूंकि उनकी दो पत्नीयां थी और वे दोनो ही से एक समान प्रेम करते थे, इसलिए उन्होंने उस आम के बराबर टुकड़े करके अपनी दोनो रानियों को खिला दिया। इससे दोनो रानियों को आधे-आधे पुत्र हुए। भय के मारे उन्होंने उन दोनो टुकड़ो को वन में फिकवा दिया। तभी वहाँ से जरा नामक राक्षसी गुज़र रही थी। उसने ने माँस के उन दोनों लोथड़ों को देखा और उसने दायां लोथड़ा दाएं हाथ में और बायां लोथड़ा बाएं हाथ में लिया जिससे वह दोनो टुकडे जुड़ गए। और फिर जरा नामक राक्षसी ने उसे राजा बृहद्रथ को सौप दिया और राजभवन में दोनों रानियों की छाती से दुध उतर आया। इसीलिए उसका नाम जरासंध हुआ। सम्राट जरासंध महादेव का बहुत बड़ा भक्त था ।उनकी बहन का नाम शशिरेखा था जो कि धृष्टद्युम्न से प्रेम करती थी परंतु उसके भाई जरासंध ने उसकी शादी कौरव से लगाने का प्रयत्न किया। सभी कौरव शशिरेखा से प्रमुख करते थे पर शशिरेखा ने जिद्द से धृष्टद्युम्न से विवाह की।
अंग प्रदेश का राजा बनने के पश्चात , कर्ण अंग की प्रजा को मगध नरेश के अन्याय से मुक्त करने के लिए जरासंध से युद्ध करता है । यह युद्ध लागातार 500 दिनों तक चला था। इसी युद्व के अन्तिम मे कर्ण जरासंध को बताता है कि उसे उसकी कमजोरी का ज्ञान है। उसे बीच से फाड़कर मारा जा सकता है। तब जरासंध अपनी पराजय स्वीकार कर लेता हैं और यही से उसकी म्रत्यु का रहस्य सबके सामने आ जाता है।
इंद्रप्रस्थ नगरी का निर्माण पूरा होने के पश्चात एक दिन नारद मुनि ने महाराज युधिष्ठिर को उनके पिता का यह संदेश सुनाया की अब वे राजसूय यज्ञ करें। इस विषय पर महाराज ने श्रीकृष्ण से बात की तो उन्होंने भी युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ करने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन महाराज युधिष्ठिर के चक्रवर्ती सम्राट बनने के मार्ग में केवल एक रोड़ा था, मगध नरेश जरासंध, जिसे परास्त किए बिना वह सम्राट नहीं बन सकते थे और ना ही उसे रणभूमि मे परास्त किया जा सकता था। इस समस्या का समाधान करने के लिए श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन के साथ ब्राह्मणों का भेष बनाकर मगध की ओर चल दिए। वहाँ पहुँच कर जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर कुछ माँग लेने के लिए कहा लेकिन उस समय ब्राह्मण भेषधारी श्रीकृष्ण ने कहा की अभी उनके दोनो मित्रों का मौन व्रत है जो अर्ध रात्रि में समाप्त होगा। तब जरासंध ने अर्ध रात्रि तब ही आने का वचन दिया और उन्हें ब्राह्मण कक्ष मे ठहराया।
तब अर्धरात्रि में वह आया लेकिन उसे उन तीनों पर कुछ संदेह हुआ की वे ब्राह्मण नहीं है क्योंकि वे शरीर से क्षत्रिय जैसे लग रहे थे उसने अपने संदेह को प्रकट किया और उन्हे उनके वास्तविक रूप में आने को कहा एवं उन्हे पहचान लिया। तब श्रीकृष्ण की खरी-खोटी सुनने के बाद उसे क्रोध आ गया और उसने कहा की उन्हें जो भी चाहिए वे माँग ले और यहाँ से चले जाएं। तब उन्होंने ब्राह्मण भेष में ही जरासंध को मल्लयुद्ध करने के लिए कहा और फिर अपना वास्तविक परिचय दिया। जरासन्ध एक वीर योधा था इसलिए उसने मल्ल युद्ध के लिए भीम को ही चुना। किंतु अर्जुन भी एक शक्तिशाली और योग्य योद्धा था नकुल भी जरासंध को हरा सकता था। तब अगले दिन उसने भीम के साथ मल्लभूमि में मल्ल युद्ध किया। यह युद्ध लगभग २८ दिनो तक चलता रहा लेकिन जितनी बार भीमसेन उसके दो टुकड़े करते वह फिर से जुड़ जाता। इस पर श्रीकृष्ण ने घास की एक डंडी की सहायता से भीम को संकेत किया की इस बार वह उसके टुकड़े कर के दोनों टुकड़े अलग-अलग दिशा में फेंके। तब भीम ने वैसा ही किया और इस प्रकार जरासंध का वध हुआ।
तब उसका वध करके उन तीनों ने उसके बंदीगृह में बंद सभी ८६ राजाओं को मुक्त किया और श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को राजा बनाया। सहदेव ने आगे चलकर के महाभारत के युध मे पान्डवो का साथ दिया।
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