आजीविका

कोई व्यक्ति जीवन के विभिन्न कालावधियों में जिस क्षेत्र में काम करता है या जो काम करता है, उसी को उसकी आजीविका या 'वृत्ति' या रोजगार या करिअर (Career) कहते हैं। आजीविका प्रायः ऐसे कार्यों को कहते हैं जिससे जीविकोपार्जन होता है। शिक्षक, डाक्टर, इंजिनीयर, प्रबन्धक, वकील, श्रमिक, कलाकार, आदि कुछ आजीविकाएँ हैं।

हममें से प्रत्येक को किसी न किसी स्तर पर अपना जीवनयापन करने के लिये जीविकोपार्जन का साधन चुनना पड़ता है। व्यापार का क्षेत्र, स्वरोजगार तथा सवेतन रोजगार के अनगिनत अवसर प्रदान करता है। आज स्वरोजगार, बेरोजगारी दूर करने का एक अति उत्तम विकल्प है जिससे देश की उन्नति भी होती है। स्वयं के लिये कार्य करना अपने आप में एक चुनौती तथा प्रसन्नता है।

जीविका की अवधरणा

जीविका का शाब्दिक अर्थ है : एक ऐसा व्यवसाय, जिसके द्वारा जीवन में आगे बढ़ने एवं उन्नति के अवसरों का लाभ उठाया जा सके। इससे अभिप्राय मात्र एक रोजगार/जीविका का चयन नहीं है। इसका तात्पर्य उन विभिन्न पदों से हैं, जो क्रियाशील जीवन में कोई व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। व्यापक अर्थों में जीविका किसी व्यक्ति की जीवन संरचना का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। उदाहरण के लिए आपको कार्यालय सहायक का पद मिलता है। आगे चलकर आप कार्यालय अधीक्षक बन सकते हैं और हो सकता है कि कार्यालय प्रबन्धक के पद तक पहुंच जाएं। व्यवसाय का अर्थ है किसी व्यक्ति द्वारा जीवन में उन्नति करना विशेषतया उस व्यक्ति से सम्बंधित व्यवसाय के सम्बंध में। व्यवसाय सामान्यतः एक व्यक्ति द्वारा लम्बे समय तक किया जाने वाला कार्य है, जो सेवा में रहते हुए अपनी स्थिति बनाये हुए अपने व्यवसाय/जीविकोपार्जन के रूप में करता है।

आज जल्दी-जल्दी व्यवसाय बदलने का चलन बढ़ रहा है। उदाहरण के लिये एक वकील अपने व्यक्तिगत व्यवासय में कई अलग-अलग फर्मों का अलग-अलग कानूनी व्यवसाय करता है।

अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग व्यवाय जो आप करते हैं। उसे आपके व्यवसाय का रास्ता कह सकते हैं और इससे आपके दिन प्रतिदिन की दिनचर्या पर भी प्रभाव पड़ता है। व्यवसाय से ही किसी की स्थिति का पता भी चलता है कि जो उस व्यक्ति ने अपनी योग्यता तथा क्षमता विकसित की है।

जीविका के चयन का महत्त्व

जीविका का चुनाव जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। अपनी योग्यता के अनुसार एक विशेष व्यवसाय का चुनाव जो हम अपने भविष्य के लिये करते हैं, उसका आज के प्रतियोगी जीवन में बहुत महत्त्व है। आप जिस वृत्ति का चुनाव करते हैं वही आपके भविष्य की आधरशिला है। पहले, लोग अपनी शिक्षा पूरी करते थे, फिर अपनी जीविका का निर्णय करते थे। लेकिन आज की पीढ़ी अपनी विद्यालयी शिक्षा पूरी करने से पहले ही अपने भविष्य निर्माण की दिशा में कदम बढ़ा लेती है। जीविका का चुनाव किसी व्यक्ति की जीवन शैली को अन्य किसी घटना की तुलना में सबसे अधिक प्रभावित करता है। कार्य हमारे जीवन के कई रूपों को प्रभावित करते हैं। हमारे जीवन में मूल्यों, दृष्टिकोण एवं हमारी प्रवृत्तियों को जीवन की ओर प्रभावित करता है। इस भीषण प्रतियोगिता की दुनिया में प्रारम्भ में ही जीविका सम्बन्धी सही चुनाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए एक ऐसी प्रक्रिया की आवश्यकता है, जो किसी व्यक्ति को विभिन्न जीवन वृत्तियों से अवगत कराए। इस प्रक्रिया में व्यक्ति को अपनी उन योग्यताओं एवं क्षमताओं का पता लग जाता है, जो जीवन सम्बन्धी निर्णय का एक महत्वपूर्ण अंग है।

प्रतियोगिता आज के समाज के मुख्य अंग है, इसलिए जीविका की योजना बनाना ही केवल यह बताता है कि हमें जीवन में क्या करना है और हम क्या करना चाहते हैं? ना कि बार-बार और जल्दी-जल्दी अपने व्यवसाय अथवा कार्य को उद्देश्यहीन तरीके से बदलना।

हम वर्तमान में क्या हैं, इसका पता हमें जीविका चुनने से ही चलता है। हम सभी की कुछ आकांक्षाएं होती है और हम सभी भविष्य में स्थिरता चाहते हैं। इसलिए जीविका का चयन एक कुंजी का कार्य करता है। कोई व्यक्ति अपने बारे में उचित विश्लेषण करके उचित निर्णय ले सकता है।

जीविका का चयन मुख्यतः हाई स्कूल अथवा इन्टर की पढ़ाई पूरी करने पर प्रारम्भ होता है। उसके पश्चात स्नातक की पढ़ाई व्यक्ति को अच्छी तथा सुलभ जीविका चुनने में सहायक होती है। जीविका का चुनाव हमें भविष्य को सुचारू बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उदाहरण के लिये यदि कोई व्यक्ति बैंकर बनना चाहता है तो वह ‘‘इण्डियन कास्ट एंड वर्क एकाउन्टेंट’’ चार्टेड एकाउण्टेन्ट, मास्टर ऑफ बिजनेस एउमिनिस्ट्रेशन ;वित्तद्ध का कोर्स करना चाहेगा। जीविका चयन एक ऐसा कार्य है जो कि हमें जीवन पर्यन्त अध्ययन करने तथा उन्नति करने के लिये प्रेरित करता रहता है और हम जैसा करते हैं हमारी रूचि और आवश्यकताएं हमें बदलाव की ओर अग्रसर करती रहती है।

व्यवसाय में जीविका के अवसर

जब कोई व्यक्ति किसी व्यवसाय में लगा होता है तो हम कहते हैं कि वह रोजगार में है। हर व्यक्ति का व्यवसाय किसी न किसी आर्थिक क्रिया से जुड़ा है। हर व्यक्ति अपने भविष्य के निर्माण के लिए किसी न किसी रोजगार में लगना चाहता है अर्थात् अपनी आजीविका कमाने के लिए किसी न किसी आर्थिक क्रिया में लग जाता है।

जीविका का चुनाव करने के लिए नीचे दिए गए विकल्पों में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता है : # नौकरी # स्वरोजगार

नौकरी का अर्थ है किसी दूसरे की मजदूरी अथवा वेतन के बदले में कार्य करना। यदि किसी को कार्यालय सहायक के पद पर नियुक्त किया जाता है तो वह उस कार्य को करेगा जो उसका पर्यवेक्षक उसे सौंपता है। अपने कार्य के बदले में प्रतिमास उसे वेतन मिलेगा। इस प्रकार का रोजगार रोजगारदाता एवं कर्मचारी के बीच अनुबंध पर आधारित होता है। कर्मचारी अपने मालिक के लिए कार्य करता है। वह उस कार्य को करता है जो उसका मालिक उसे करने के लिए देता है। इसके बदले में उसे उसका प्रतिफल मिलता है। कार्यकाल की अवधि में वह मालिक की देख-रेख और नियंत्रण में कार्य करता है। दूसरी ओर स्वरोजगार का अर्थ है अपनी जीविका कमाने के लिए स्वयं किसी आर्थिक क्रिया को करना। आइए, पहले नौकरी के विभिन्न अवसरों के बारे में संक्षेप में जानें।

नौकरी

सवेतन व्यवसाय अथवा सवेतन नौकरी के अवसर सरकारी कार्यालयों में पाये जाते हैं। सरकारी विभागों में रेलवे, बैंक, व्यापारिक कम्पनियां, स्कूल एवं अस्पतालों में विभिन्न प्रकार का कार्य होता है। इसी प्रकार से औद्योगिक इकाइयों एवं ट्रांसपोर्ट कम्पनियों के कार्यों की प्रकृति में अंतर होता है। इसलिए इनमें कार्यरत तकनीकी कर्मचारियों के कार्य में भी भिन्नता होती है।

जिन लोगों ने माध्यमिक परीक्षा पास की है उन लोगों के लिए लिपिक अथवा विद्यालयों में प्रयोगशाला सहायक के पद पर नियुक्ति के अवसर होते हैं, क्योंकि इन पदों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता माध्यमिक कक्षा उत्तीर्ण है। वैसे इनके लिए आई। टी.आई। पॉलीटैक्निक, राज्य सचिव एवं वाणिज्यिक संस्थानों में प्रशिक्षण की विशेष सुविधाएं उपलब्ध हैं। जो व्यक्ति तकनीकी अथवा कार्यालय सचिवालयों के पाठ्यक्रम में उतीर्ण हो जाता है उसे किसी कार्यशाला में तकनीकी कर्मचारी अथवा कार्यालय सहायक अथवा लेखालिपिक के पद पर नियुक्ति मिल सकती है। यदि वह कम्प्यूटर प्रचालन में निपुण है तो उसे कम्प्यूटर प्रचालक के रूप में नियुक्ति मिल सकती है।

स्वरोजगार

जब आप कोई रोजगार अपनाते हैं तो आप वह कार्य करते हैं जो आपका रोजगारदाता आपको सौंपता है तथा बदले में आपको मजदूरी अथवा वेतन के रूप में एक निश्चित राशि प्राप्त होती है। लेकिन कोई काम/नौकरी के स्थान पर अपना कोई कार्य कर सकते हैं तथा अपनी आजीविका कमा सकते हैं।

आप एक दवाइयों की दुकान चला सकते हैं या फिर एक दर्जी का काम कर सकते हैं। यदि एक व्यक्ति कोई आर्थिक क्रिया करता है तथा स्वयं ही इसका प्रबंधन करता है तो इसे स्वरोजगार कहते हैं। हर इलाके में आप छोटे-छोटे स्टोर, मरम्मत करने वाली दुकानें अथवा सेवा प्रदान करने वाली इकाइयां देखते हैं। इन प्रतिष्ठानों का एक ही व्यक्ति स्वामी होता है तथा वही उनका प्रबंधन करता है। कभी-कभी एक या दो व्यक्तियों को वह अपने सहायक के रूप में रख लेता है। किराना भंडार, स्टेशनरी की दुकान, किताब की दुकान, दवा घर, दर्जी की दुकान, नाई की दुकान, टेलीफोन बूथ, ब्यूटी पार्लर, बिजली, साइकिल आदि की मरम्मत की दुकानें स्वरोजगार आधारित क्रियाओं के उदाहरण हैं। इन भंडारों अथवा दुकानों के स्वामी प्रबन्ध्क क्रय-विक्रय क्रियाओं अथवा सेवा कार्यों से आय अर्जित करते हैं जो उनकी जीविका का साधन है। यदि उनकी आय व्यय से कम होती है तो उन्हें हानि होती है, जिसे उन्हें ही वहन करना होता है।

स्वरोजगार तथा सवेतन रोजगार में अंतर

  • नौकरी या सवेतन रोजगार में व्यक्ति कर्मचारी होता है, जबकि स्वरोजगार में वह स्वयं नियोक्ता की तरह होता है।
  • नौकरी में आमदनी नियोक्ता पर निर्भर करती है कि वह कितना वेतन देता है, जबकि स्वरोजगार में उस व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करती है जो स्वरोजगार में लगा हुआ है।
  • नौकरी में व्यक्ति दूसरों के लाभ के लिए कार्य करता है जबकि स्वरोजगार में व्यक्ति अपने ही लाभ के लिए कार्य करता है।
  • नौकरी में आय सीमित होती है, जो पहले से ही नियोक्ता द्वारा तय कर ली जाती है। जबकि स्वरोजगार में स्वरोजगार में लगे हुए व्यक्ति की लगन व योग्यता पर निर्भर करती है।
  • नौकरी में कर्मचारी को ‘कार्य विशेष’ नियोक्ता द्वारा दिया जाता है, जबकि स्वरोजगार में वह अपनी आवश्यकतानुसार कार्य चुनता है।
  • स्वरोजगार में जोखिम सदैव बना रहता है तथा आप घटती रहती है नौकरी में कोई जोखिम नहीं है जब तक कि एक कर्मचारी कार्य करता है।

स्वरोजगार के क्षेत्र

जब आप स्वरोजगार की योजना बनाएं तो आप इसके लिए निम्नलिखित अवसरों को ध्यान में रख सकते हैं :

  • छोटे पैमाने का फुटकर व्यापार : एक अकेला स्वामी छोटे व्यावसायिक इकाइयों को एक या दो सहायकों के सहयोग से सरलता से प्रारम्भ कर सकता है तथा लाभ कमा सकता है।
  • व्यक्तिगत निपुणता के आधार पर सेवाएं प्रदान करना : जो लोग अपनी विशिष्ट निपुणता के आधर पर ग्राहकों को सेवाएं प्रदान करते हैं वह भी स्वरोजगार में सम्मिलित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए साईकिल, स्कूटर, घड़ियों की मरम्मत, सिलाई, बाल संवारना आदि ऐसी सेवाएं है जो ग्राहक को व्यक्तिगत रूप से प्रदान की जाती है।
  • पेशेगत योग्यताओं पर आधारित व्यवसाय : जिन कार्यों के लिए पेशे सम्बन्धी प्रशिक्षण एवं अनुभव की आवश्यकता होती है वह भी स्वरोजगार के अंतर्गत आते हैं। उदाहरण के लिए पेशे में कार्यरत डॉक्टर, वकील, चाटर्ड एकाउन्टैंट, फार्मेसिस्ट, आरकीटैक्ट आदि भी अपने विशिष्ट प्रशिक्षण एवं निपुणता के आधर पर स्वरोजगार की श्रेणी में आते हैं इनके छोटे प्रतिष्ठान होते हैं जैसे क्लीनिक, दफ्रतर का स्थान, चैम्बर आदि तथा यह एक या दो सहायकों की सहायता से अपने ग्राहकों को सेवाएं प्रदान करते हैं।
  • छोटे पैमाने की कृषि : कृषि के छोटे पैमाने के कार्य जैसे डेरी, मुर्गीपालन, बागबानी, रेशम उत्पादन आदि में स्वरोजगार सम्भव है। अद्ध ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग :चर्खा कातना, बुनना, हाथ से बुनना, कपड़ों की सिलाई भी स्वरोजगार है। यह पारम्परिक विरासत में मिली निपुणताएं हैं।
  • कला एवं काश्तकारी/शिल्प : जो लोग किसी कला अथवा शिल्प में प्रशिक्षण प्राप्त हैं वह भी स्व रोजगार ही है। इनके व्यवसाय हैं - सुनार, लोहार, बढ़ई आदि।

सवेतन की वरीयता में स्वरोजगार

स्वरोजगार, अक्सर सवेतन से निम्न कारणों से बेहतर माना जाता है :

  • स्वरोजगार अपनी योग्यता को अपने फायदे के लिए स्वरोजगार से आप अपने समय व योग्यता का अधिकतम लाभ उठा सकते हैं।
  • स्वरोजगार पूँजी के अत्यधिक संसाधनों तथा अन्य संसाधनों के बिना भी संभव है। उदाहरण के लिए एक मरम्मत की दुकान कम पूँजी से शुरू की जा सकती है।
  • स्वरोजगार में एक व्यक्ति ‘कार्य पर’ रह कर कई चीजे सीखता है क्योंकि उसे अपने व्यवसाय से सम्बन्धित अपने फायदे के लिए सभी निर्णय स्वयं लेने होते हैं।

स्वरोजगार में सफलता के लिए आवश्यक गुण

  • बौद्धिक योग्यताएं : आप यदि स्वरोजगार में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो आप में स्वरोजगार के सर्वाधिक अनुकूल अवसरों की पहचान करने की योग्यता होनी आवश्यक है। साथ ही व्यवसाय परिचालन के सम्बन्ध में निर्णय लेने तथा तरह-तरह के ग्राहकों को संतुष्ट करने की योग्यता का होना भी महत्त्व रखता है। पिफर समस्याओं के पूर्वानुमान एवं जोखिम उठाने की क्षमता की भी आवश्यकता है।
  • सतर्कता तथा दूर-दृष्टि : स्वरोजगार में लगे व्यक्ति को बाजार में हो रहे परिवर्तनों के प्रति सचेत और सतर्क होना चाहिए जिससे कि वह उनके अनुसार अपने व्यवसाय के कार्यों का समायोजन कर सके। उसमें दूर-दृष्टि का भी होना आवश्यक है जिससे कि वह संभावित परिवर्तनों का अनुमान लगा सके, अवसरों का लाभ उठा सके तथा भविष्य में यदि किसी प्रकार के खतरे की संभावना है तो उनका सामना कर सकें।
  • आत्मविश्वास : स्वरोजगार में मालिक को ही सभी निर्णय लेने आवश्यक होते हैं क्योंकि उसे समस्याओं को हल करना होता है तथा आपूर्तिकर्ता, लेनदार ग्राहक तथा सरकारी अधिकारियों का समाना करना होता है।
  • व्यवसाय का ज्ञान : जो भी व्यक्ति स्वरोजगार में लगा है उसको व्यवसाय का पूरा ज्ञान होना चाहिए। इसमें व्यवसाय को चलाने का तकनीकी ज्ञान एवं कौशल भी सम्मिलित है।
  • सम्बन्धित कानूनों का ज्ञान : जो स्वरोजगार में लगा है, यह आवश्यक नहीं कि वह कानून का विशेषज्ञ हो लेकिन उसे जहां उसका व्यवाय चल रहा है वहां के व्यवसाय सम्बन्धी एवं सेवाओं से सम्बन्धित कानूनों का काम चलाऊ ज्ञान होना आवश्यक है। इनमें ट्रेड एंड ऐस्टेबलिशमेंट एक्ट, विक्रय कर एवं उत्पादन कर से संबंधित कानून एवं प्रदूषण नियंत्रण आदि से संबंधित नियम है।
  • लेखा कार्य का ज्ञान : व्यवसाय करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सभी लेन देनों का पूरा ब्यौरा रखना होता है जिससे कि वह आवधिक अन्तराल का लाभ हानि निर्धारित कर सके, भुगतान तिथि को अपने लेनदारों का भुगतान कर सके, ग्राहकों से पैसा वसूल कर सके तथा करों का भुगतान कर सके। इस सबके लिए उसे लेखा कार्य का आवश्यक ज्ञान होना जरूरी है।
  • अन्य व्यक्तिगत गुण : स्वरोजगार में लगे व्यक्ति में ईमानदारी, गंभीर तथा परिश्रमी जैसे गुणों का होना आवश्यक है।

आजीविका के सिद्धान्त

परम्परावादी सिद्धान्त

रोजगार का परम्परावादी सिद्धान्त विभिन्न परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के विचारों में समन्वय का परिणाम है। यह पूर्ण रोजगार की धारणा पर आधारित है। इसलिए इस सिद्धान्त के अनुसार, "पूर्ण प्रतियोगी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति एक सामान्य स्थिति होती है।" रोजगार का परम्परावादी सिद्धान्त के अनुसार पूर्ण रोजगार एक ऐसी स्थिति है जिसमें उन सब लोगों को रोजगार मिल जाता है जो प्रचलित मजदूरी पर काम करने को तैयार हैं। यह अर्थव्यवस्था की एक ऐसी स्थिति है जिसमें अनैच्छिक बेरोजगारी नहीं पाई जाती। लरनर के अनुसार, "पूर्ण रोजगार वह अवस्था है जिसमें वे सब लोग जो मजदूरी की वर्तमान दरों पर काम करने के योग्य तथा इच्छुक हैं, बिना किसी कठिनाई के काम प्राप्त कर लेते हैं।"

रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त की मान्यताएं

रोजगार का परम्परावादी सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित हैः

1. रोजगार का परम्परावादी सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है।

2. रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त के अनुसार कीमतों, मजदूरी तथा ब्याज की दर में लोचशीलता पाई जाती है अर्थात् आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जा सकते हैं।

3. इस सिद्धान्त के अनुसार मुद्रा केवल एक आवरण मात्र है। इसका आर्थिक क्रियाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

4. आर्थिक क्रियाओं में सरकार की ओर से किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं है। बाजार मांग और पूर्ति की शक्तियां कीमतों को निर्धारित करने के लिए स्वतन्त्र है।

5. रोजगार का परम्परावादी सिद्धान्त अल्पकाल में लागू होता है।

6. बचत और निवेश दोनों ही ब्याज की दर पर निर्भर करते हैं।

7. यह भी मान्यता है कि अर्थव्यवस्था एक बन्द अर्थव्यवस्था है। इस पर विदेशी व्यापार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

उत्पादन में वृद्धि करने के लिए जैसे-जैसे श्रम की अधिक मात्रा का प्रयोग किया जाता है श्रम की सीमान्त भौतिक उत्पादकता कम होती जाती है। इसलिये उत्पादक अधिक श्रम की मांग तभी करेगा जब वास्तविक मजदूरी या नकद मजदूरी (कीमत स्तर च् स्थिर रहता है) कम हो जाती है। इस प्रकार, श्रम की मांग मजदूरी का घटता हुआ फलन है अर्थात् मजदूरी के बढ़ने पर श्रम की मांग कम होती है तथा मजदूरी के कम होने पर श्रम की मांग बढ़ती जाती है।

रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त के निष्कर्ष

रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त के मुख्य निष्कर्ष निम्ननिलित हैः

1. पूर्ण रोजगार की स्थिति एक सामान्य स्थिति है।

2. पूर्ण रोजगार का अर्थ है अनैच्छिक बेरोजगारी की अनुपस्थिति। पूर्ण रोजगार की अवस्था में संघर्षात्मक, ऐच्छिक आदि कई प्रकार की बेरोजगारी पाई जा सकती है।

3. सन्तुलन की अवस्था केवल पूर्ण रोजगार की दशा में ही सम्भव है।

4. सामान्य बेरोजगारी सम्भव नहीं है परन्तु अल्पकाल के लिये असाधारण परिस्थितियों में आंशिक बेरोजगारी पाई जा सकती है।

रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त पर केन्ज़ की आपत्तियाँ

रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त पर केन्ज़ की आपत्तियों या आलोचनाओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता हैः

  • 1. ‘से’ का बाजार नियम अवास्तविक हैः केन्ज ने परम्परावादी रोजगार सिद्धान्त के एक मुख्य आधार ‘से’ के बाजार नियम की कटु आलोचना की है। इस नियम की यह मान्यता अवास्तविक है कि पूर्ति अपनी मांग का स्वयं निर्माण करती है। इसका कारण यह है कि लोग अपनी सारी आय को खर्च नहीं करते और कुछ भाग की बचत कर लेते हैं। इसके फलस्वरुप, कुल मांग कुल पूर्ति से कम हो जाती है।
  • 2. बचत और निवेश ब्याज सापेक्ष नहीं हैः रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त की यह धारणा भी भ्रमपूर्ण है कि बचत और निवेश, ब्याज के माध्यम से बराबर हो जाते हैं। केन्ज के अनुसार बचत आय पर तथा निवेश ब्याज की दर और पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करता है। इसलिये यह आवश्यक नहीं है कि ब्याज की दर में परिवर्तन होने से बचत तथा निवेश दोनों में परिवर्तन हो।
  • 3. मज़दूरी की लोचशीलता तर्क की आलोचनाः केन्ज़ ने मज़दूरी की लोचशीलता तर्क की भी आलोचना की है।उनके अनुसार मजदूरी की दर को एक सीमा से अधिक कम करना व्यावहारिक रुप से सम्भव नहीं है।
  • 4. नकद मजदूरी में कटौती करके रोजगार को नहीं बढ़ाया जा सकताः केन्ज ने परम्परावादी रोजगार सिद्धान्त की आलोचना इसलिए भी की है क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार नकद मजदूरी में कटौती करके रोजगार को बढ़ाया जा सकता है। केन्ज के अनुसार ऐसा सम्भव नहीं है।
  • 5. अल्पबेरोजगार सन्तुलन की सम्भावनाः इस सिद्धान्त का यह निष्कर्ष भी सही नहीं है कि अर्थव्यवस्था में सामान्यतः पूर्ण रोजगार की स्थिति पाई जाती है तथा सन्तुलन की स्थिति केवल पूर्ण रोजगार की स्थिति में ही सम्भव है। केन्ज के अनुसार, प्रत्येक अर्थव्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी पाई जाती है तथा सन्तुलन की स्थिति में भी बेरोजगारी पायी जा सकती है।
  • 6. अर्थव्यवस्था में स्वयं समन्वय का अभावः केन्ज के अनुसार रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त की यह धारणा भी उचित नहीं है कि आर्थिक प्रणाली स्वयं समायोजित होती है।
  • 7. सरकारी हस्तक्षेप न करने की नीति की अस्वीकृतिः केन्ज के अनुसार रोजगार के परम्परावादी सिद्धान्त की यह मान्यता वास्तविक नहीं है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बिना सरकारी हस्तक्षेप के आर्थिक शक्तियां स्वयं ही बेरोजगारी को दूर करने में सफल होगी। 1930 की महामन्दी के अनुभवों के आधार पर केन्ज ने बेरोजगारी के समाधान के लिए परम्परावादी अर्थशास्त्रियों की सरकारी हस्तक्षेप न करने की नीति को अस्वीकार कर दिया।

केन्ज का रोजगार सिद्धान्त

केन्ज ने परम्परावादी रोजगार सिद्धान्त के इस निष्कर्ष का विरोध किया है कि पूर्ण रोजगार की स्थिति एक पूंजीवादी विकसित अर्थव्यवस्था की सामान्य स्थिति है। उनके अनुसार एक अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की स्थिति में भी सन्तुलन की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है।

केन्ज ने अपने रोजगार सिद्धान्त में बेरोजगारी का मुख्य कारण प्रभावपूर्ण मांग में होने वाली कमी को माना है। प्रभावपूर्ण मांग कुल मांग का वह स्तर है जिस पर वह कुल पूर्ति के बराबर होती है। इस प्रकार प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ाकर बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है। केन्ज का यह विचार था कि बेरोजगारी को दूर करके पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करने के लिये सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है।

केन्ज के रोजगार सिद्धान्त के अनुसार अल्पकाल में राष्ट्रीय आय या उत्पादन का स्तर पूर्ण रोजगार के स्तर से कम या उसके बराबर निर्धारित हो सकता है। इसका कारण यह है कि अर्थव्यवस्था में कोई ऐसी स्वचालित व्यवस्था नहीं होती जो सदैव ही पूर्ण रोजगार स्तर को कायम रख सके। केन्ज के अनुसार, अल्पकाल में राष्ट्रीय आय के अधिक होने का अर्थ है कि रोजगार की अधिक मात्रा और राष्ट्रीय आय के कम होने का अर्थ है रोजगार की कम मात्रा। इस प्रकार केन्ज का सिद्धान्त रोजगार निर्धारण का सिद्धान्त भी है और राष्ट्रीय आय निर्धारण का सिद्धान्त भी है।

डिल्लर्ड के अनुसार, "केन्ज के रोजगार सिद्धान्त का तार्किक आरम्भ बिन्दु प्रभावपूर्ण मांग का सिद्धान्त है।"

केन्ज के रोजगार सिद्धान्त में प्रभावपूर्ण मांग महत्वपूर्ण तत्त्व है। प्रभावपूर्ण मांग और उसके तत्वों को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता हैः

प्रभावपूर्ण मांग : प्रभावपूर्ण मांग कुल मांग और कुल पूर्ति पर निर्भर करती है अर्थात् कुल मांग और कुल पूर्ति के सन्तुलन को दिखाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि कुल मांग के केवल उस स्तर को प्रभावपूर्ण मांग कहा जाएगा जिस पर वह कुल पूर्ति के बराबर हो।

कुल पूर्ति : कुल पूर्ति से अभिप्राय रोजगार के विभिन्न स्तरों पर मिलने वाली कुल पूर्ति कीमत से है जो उत्पादकों को प्राप्त होती है ताकि उत्पादन के विभिन्न स्तर को कायम रखा जा सके। अल्पकाल में कुल पूर्ति स्थिर रहती है।

कुल मांग : कुल मांग से अभिप्राय उस तालिका से है जो रोजगार के विभिन्न स्तरों पर मिलने वाली उस कुल मांग कीमत को दिखाती है जिसकी सम्भावना है। केन्ज के अनुसार कुल मांग को दो भागों में बांट सकते हैः उपभोग और निवेश

उपभोग : उपभोग वस्तुओं पर जो व्यय किया जाता है उसे उपभोग व्यय कहा जाता है।उपभोग व्यय मुख्य रुप से दोतत्वों अर्थात् उपभोग प्रवृत्ति और राष्ट्रीय आय पर निर्भर करता है।

निवेश : पूंजीगत वस्तुओं जैसे मशीनों आदि पर जो व्यय किया जाता है उसे निवेश कहते हैं। अर्थात् निवेश से अभिप्राय उन खर्चों से है जिनके द्वारा पूंजी में वृद्धि होती है। निवेश मुख्य रुप से दो तत्वों अर्थात् ब्याज की दर और पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करता है।

केन्ज के रोजगार सिद्धान्त की आलोचनाएं

केन्ज के रोजगार सिद्धान्त की मुख्य आलोचनाएं इस प्रकार से हैः

1. केन्ज के अनुसार एक अर्थव्यवस्था में सन्तुलन की स्थिति पूर्ण रोजगार से कम स्तर पर भी हो सकती है। अनेक अर्थशास्त्रियों ने केन्ज की इस धारणा की आलोचना की है।

2. केन्ज का रोजगार सिद्धान्त एक अल्पकालीन विश्लेषण है। यह दीर्घकाल से सम्बन्ध नहीं रखता है।

3. केन्ज का रोजगार सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता ही अवास्तविक धारणा पर आधारित है।

4. केन्ज का रोजगार सिद्धान्त एक सामान्य सिद्धान्त नहीं है क्योंकि यह सिद्धान्त प्रत्येक प्रकार की समस्या का न तो समाधान करता है और न ही प्रत्येक अर्थव्यवस्था में लागू होता है।

5. केन्ज का रोजगार सिद्धान्त बन्द अर्थव्यवस्था की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है।

6. केन्ज ने ब्याज की दर को केवल एक मौद्रिक घटना माना है। लेकिन हेन्सन, हिक्स आदि के अनुसार ब्याज की दर पर वास्तविक तथा मौद्रिक दोनों प्रकार के तत्वों का प्रभाव पड़ता है।

7. केन्ज के रोजगार सिद्धान्त में त्वरक धारणा का अभाव है। इस कारण से केन्ज का सिद्धान्त पूर्ण नहीं माना जा सकता।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

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