सूरज का सातवाँ घोड़ा

सूरज का सातवाँ घोड़ा धर्मवीर भारती का प्रसिद्ध उपन्यास है। धर्मवीर भारती की इस लघु औपन्यासिक रचना में हितोपदेश और पंचतंत्रवाली शैली में ७ दोपहरी में कही गई कहानियों के रूप में एक उपन्यास निर्मित किया गया है। यह पुस्तक के रूप में भारतीय ज्ञानपीठ से

सूरज का सातवाँ घोड़ा  
लेखक धर्मवीर भारती
देश भारत
भाषा हिंदी
प्रकार उपन्यास
प्रकाशक 1952

इसे लघु उपन्यास की संज्ञा दी गयी है। कथानक की बुनावट उपन्यास की विषय–वस्तु को नए आयाम प्रदान करती है। ‘सूरज का सातवॉं घोड़ा’ भी भारत-ईरान की प्राचीन  शैलियों से प्रभावित माना जाता है। लेकिन, पुरानी किस्सागोई का यह तरीका –अलिफलैला, पंचतंत्र, दशकुमारचरित अथवा कथासरित्सागर – ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ की ऊपरी त्वचा मात्र है, इसे कथानक का बुनियादी ढाँचा नहीं माना जा सकता। एक दूसरी शैली भी इसमें परिलक्षित की जा सकती है- वह है, वीरगाथाओं या अन्य महाकाव्यों जैसी शैली, जिसमें रचनाकार अपनी रचनाओं का रचयिता ही नहीं वरन् घटनाओं के बीच स्वयं भी उपस्थित है। वह भोक्ता और रचयिता दोनों है। इस प्रकार रचना तटस्थ होने, निजी अनुभूति को सार्वजनिक अनुभव में तब्दील करने का दायित्व बन जाती है। ‘पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता चंदवरदायी इसके महत्त्वपूर्ण्  चरित्र भी हैं, ठीक उसी तरह जैसे वाल्मीकि और तुलसी खुद को अपनी रचनाओं में उपस्थित कर देते हैं या कि संजय महाभारत के घटनाचक्र में मौजूद है।

       ‘सूरज का सातवाँ घोडा’ के किस्से माणिक मुल्ला सुनाते हैं, लेकिन वे इन कहानियों के वक्ता मात्र ही नहीं – वे इनके बीच बड़ी शिद्दत से मौजूद हैं। वे इन कहानियों के भोक्ता भी हैं, ठीक वाल्मीकि, संजय और चंद की तरह। कहा जाता है कि ‘रासो’ को चंदवरदायी ने पूरा न कर यह काम अपने बेटे जल्हण को सौंप दिया था। ‘रासो’ के अंतिम अंश उसी के द्वारा लिखे गए, ठीक इसी प्रकार ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ की कहानियाँ हैं तो सुनाई हुई माणिक मुल्ला की, परंतु उन्हें प्रस्तुत करता है उनका एक श्रोता ’मैं’। ‘मैं’ ही इसका मूल लेखक है लेकिन वह रामचरित मानस के तुलसी की तरह, जो रामकथा के शिव-पार्वती संवाद के प्रस्तोता मात्र बन जाते हैं- हमारे सामने आता है। वह माणिक द्वारा सुनाई कहानियों (जो अपनी श्रृंखलाबद्धता के चलते एक लघु उपन्यास का रुप धारण कर लेती हैं) के बारे में कहता है कि “अंत में मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस लघु उपन्यास की विषय-वस्तु में जो कुछ भलाई-बुराई हो उसका जिम्मा मुझ पर नहीं माणिक मुल्ला पर ही है। मैंने सिर्फ अपने ढंग से वह कथा आपके सामने रख दी है’’। यह लेखक–प्रस्तोता भी कथा में भले ही एक मामूली हैसियत से-एक श्रोता के रूप में- मौजूद है। रचना और रचनाकार भारतीय परंपरा में सहज आवाजाही करते रहे हैं। यह उपन्यास भी अपने कथानक की बुनावट में कथा और कथाकार की तद्रूपता को संभव होने देता है। यथार्थ और कल्पना एक दूसरे के पूरक होने लगते हैं। यदि कहा जाय कि मध्यवर्ग आधा यथार्थ और आधा स्वप्न में जीने वाला वर्ग है तो गलत न होगा। सृजन के लिए भी कल्पना और हकीकत का संयोग एक अनिवार्य स्थिति है। इसलिए मध्यवर्ग सर्वाधिक सृजनशील, स्वप्नजीवी और बदलावमूलक होता है । ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ इसी मध्यवर्ग की दास्तान – उसकी अंतर्विरोधी स्थितियों के साथ – हमारे सामने प्रस्तुत करता है।

इस रचना के कथानक को नए कलेवर में बुना गया है। शुरूआत उपोद्घात से हुई है। उपोद्घात यानी प्रस्तावना, भूमिका। मुख्य कथा-अध्यायों के बीच में चार अनध्याय भी जोड़े गए हैं। इनके अतिरिक्त पूरी कथा सात दोपहरों में विभक्त है। सात दोपहर की कथा माणिक मुल्ला की है और उपोद्घात समेत चार अनध्याय उनके श्रोता ‘मैं’ की टिप्पणियाँ हैं। कुल मिलाकर बारह भागों में विभाजित यह कथा माणिक मुल्ला के जीवन समेत उनके संपर्क में आए प्रमुख चरित्रों- जमुना, लिली और सत्ती की जिंदगी पर प्रकाश डालती है। साथ ही, यह भी पता चलता है कि इन पात्रों से जुड़े संदर्भों पर माणिक मुल्ला के श्रोताओं की प्रतिक्रिया कैसी थी। अपनी इन्हीं मिली-जुली घटनाओं को लेकर यह उपन्यास आकार ग्रहण करता है।उपोद्घात में हमें माणिक मुल्ला के व्यक्तित्व, उनकी अभिरुचियों, किस्से गढ़ने की उनकी क्षमता और उनको सुनाने के अंदाज के बारे में जानकारी मिलती है। यहीं हमें यह भी पता चलता है कि, ‘’अगर काफी फुरसत हो, पूरा घर अधिकार में हो, चार मित्र बैठे हों, तो निश्चित है कि घूम-फिरकर वार्ता राजनीति पर आ टिकेगी और जब राजनीति में दिलचस्पी खत्म होने लगेगी तो गोष्ठी की वार्ता ‘प्रेम’ पर आ टिकेगी।लेकिन जहाँ तक साहित्यिक वार्ता का प्रश्न था, वे (माणिक मुल्ला) प्रेम को तरजीह दिया करते थे। इन कथनों से पता चलता है कि उपन्यास लेखन के लिए जरूरी उपकरण कौन से हैं। वे हैं- फुरसत का समय, ऐसे लोग जो स्वयं फुरसत में हों और इसे काटने के लिए किस्सों का सहारा चाह रहे हों, ऐसी जगह जहाँ बाहरी व्यवधान न हो। राजनीति, प्रेम और साहित्य उपन्यास के सहज-स्वाभाविक विषय हो सकते हैं। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ की रचना इन्हीं उपकरणों के सहारे होती है। इसलिये यह कृति विराट सामाजिक प्रश्नों को नज़रअंदाज कर वैयक्तिक संदर्भों से रची जाती है। इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास की श्रेणी में न रखकर लघु उपन्यास की श्रेणी में रखा गया है। आदर्श की स्थापना के बजाय यथार्थ का उदघाटन ही इसके केन्द्र में है। यह यथार्थ भी अपनी संवेदना और भावभूमि में लघुता को ही, रोजमर्रा की आम घटनाओं को ही अधिक उभारता है। माणिक मुल्ला समेत सभी चरित्र एक औसत चरित्र हैं,  वे अपनी दैनिक घटनाओं से ही इतने अभिभूत हैं कि देश-दुनिया और समाज  को अपनी निजी निगाहों से जाँचने-परखने का काम करते है। इसीलिए बड़े सामाजिक दर्शन की एक रिड्यूस्ड समझ उनकी बनती है। गिरिजा कुमार माथुर ने ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ के रचना-विधान को तीन कथा-वृत्तों में विभाजित किया है। ‘प्रथम कथावृत्त का केंद्र माणिक मुल्ला है। जमुना, लिली और तन्ना केंद्र के उपग्रह। दूसरे कथा-वृत्त का केंद्र भी माणिक मुल्ला है, सती, महेसर और चमन सिंह केंद्र के उपग्रह। तीसरा कथा-वृत्त ‘मैं’ का है, जिसके एक ओर मार्क्सवादी सिद्धांतों का व्यंग्यपूर्ण चित्रण है और दूसरी ओर व्यक्तिवादी कला-पक्ष। यह वृत्त गौण है। गिरिजा कुमार माथुर ने आगे इसकी शिल्पगत विशेषताओं का उल्लेख करते हुए टिप्पणी की है कि, “अनध्याय में ‘मैं’ ने सबके चरित्र का विश्लेषण किसी न किसी रूप में किया है, किंतु माणिक मुल्ला से उसका इतना मोह है कि कहीं भी उनका संतुलित विश्लेषण उसने नहीं होने दिया है।अर्थात कहानी रचने वाला ‘मैं’ नामक जो श्रोता है, वह उपन्यास के भीतर दावा तो यह करता है कि मैं माणिक कथा को ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ और टेकनीक समेत बाकी सभी वस्तुओं के लिए उसने माणिक मुल्ला को ही जिम्मेदार ठहराया है, लेकिन वह तटस्थ नहीं रह सका। इस उपन्यास की संरचना में जैसे माणिक के बारे में प्रकाश का मत था कि, “हो न हो माणिक मुल्ला में भी हिंदी के अन्य कहानीकारों की तरह नारी के प्रति कुछ ऑब्सेशन है।” कुछ ऐसा ही ऑब्सेशन ‘मैं’ का माणिक के प्रति है। वह माणिक के विशिष्ट व्यक्तिव से अभिभूत है और संकल्पबद्ध होकर उनकी कहानियों को बचाने का उद्यम करता है । इस अनन्य श्रोता ‘मैं’ ने निश्चित ही इन कहानियों को महत्वपूर्ण माना है, इसीलिए माणिक मुल्ला के लापता होने पर उन्हें बचाने की दिशा में कलमबद्ध किया है। इसलिये ‘मैं’ को माणिक मुल्ला की कहानियों का तटस्थ प्रस्तोता नहीं माना जा सकता, वरन् ‘मैं’ और माणिक एक नहीं तो अधिकांशत: एक जैसे व्यक्ति हैं। इसीलिए माथुर तीसरे वृत्त को गौण मानते हैं।

खैर, इस उपन्यास के मुख्य सरोकार माणिक की कहानियों के इर्द-गिर्द  ही विकसित होते हैं। वे देखने में सीमित लग सकते हैं लेकिन इससे कौन इंकार करेगा कि हमारी जिंदगी की अधिकतर ऊर्जा इन्हीं छोटी-मोटी समस्याओं को सुलझाने में निकल जाती है और मध्यवर्गी जनसमूह इन्हीं उपलब्धियों के द्वारा स्वयं को सार्थक महसूस कर पाता है। इसलिए ‘सूरज का सातवॉं घोड़ा’ लघुता में महत् के तलाश की उल्लेखनीय कृति बन जाती है, और मध्यवर्ग की अदम्य आकांक्षा को प्रतिबिंबित करती है।उपन्यास में लैाकिक मूल्यों की सक्रियता होती है। यथार्थवादी नजरिए के बिना उपन्यास की रचना संभव नहीं। उपन्यास को हम जीवन का कलात्मक विकल्प मान सकते हैं। एक उपन्यासकार घटनाओं, चरित्रों, परिस्थितियों, संवाद आदि के माध्यम से एक दुनिया अपने उपन्यास में बसाता है। ये चरित्र वास्तविक न होते हुए भी वास्तविकता का एहसास रचते हैं तथा ‘जीवन और समाज की जटिलताओं से जूझने का प्रमाण’ उपस्थित करते हैं। उपन्यासकार जिन विभिन्न तत्वों से अपनी औपन्यासिक दुनिया बनाता है, उनमें कथानक, कथोपकथन, देशकाल, शैली, और उद्देश्य महत्वपूर्ण होते हैं। नित्यानंद तिवारी का मानना है कि, “हर उपन्यासकार अपनी दृष्टि से जीवन की समस्याओं को चीरकर उनके भीतर से इन तत्वों का संगठन करता है। ये तत्व यांत्रिक फार्मूले नहीं । इनकी भूमिका नियामक नहीं, निर्देशक है। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ में इन तत्वों की उपस्थिति एक संतुलित अनुपात में आती है, लेकिन निजता पूरे कथा-विन्यास में अधिक सक्रिय रहती है।‘

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