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चन्द्रकान्ता सन्तति 5/20.11
[ २२३ ]
11
नकाबपोशों के चले जाने के बाद जब केवल घर वाले ही वहाँ रह गये तब राजा वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता से तारासिंह की बाबत जो कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं [ २२४ ]कुछ घटा-बढ़ाकर बयान किया और इसके बाद कहा, "तारासिंह नकाबपोशों के सामने ही लौटकर आ गया था जिससे अभी तक यह पूछने का मौका न मिला कि वह कहाँ गया था और वह तस्वीर उसे कहाँ से मिली थी जो उसने अपनी माँ को दी थी।
इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह चुप हो गये और देवीसिंह ने वह कपड़े वाली तस्वीर (जो चम्पा ने दी थी) महाराज सुरेन्द्रसिंह के सामने रख दी। सुरेन्द्रसिंह ने बड़े गौर से उस तस्वीर को देखा और इसके बाद तारासिंह से पूछा––
सुरेन्द्रसिंह––निःसन्देह यह तस्वीर किसी अच्छे कारीगर के हाथ की बनी हुई है, यह तुम्हें कहाँ से मिली?
तारासिंह––मैं स्वयम् इस तस्वीर का हाल अर्ज करने वाला था, परन्तु इसके सम्बन्ध की कई ऐसी बातों को जानना आवश्यक था जिनके बिना इसका पूरा भेद मालूम नहीं हो सकता, अतएव मैं उन्हीं बातों के जानने की फिक्र में पड़ा हुआ था और इसीसबब से अभी तक कुछ अर्ज करने की नौबत नहीं आई।
तेजसिंह––तो क्या तुम्हें इसका पूरा-पूरा भेद मालूम हो गया?
तारासिंह––जी नहीं, मगर कुछ-कुछ जरूर मालूम हुआ है।
तेजसिंह––तो इस काम में तुमने अपने साथियों से मदद क्यों नहीं ली?
तारासिंह––अभी तक मदद की जरूरत नहीं पड़ी थी, मगर हाँ, अब उनकी मदद लेनी पड़ेगी!
वीरेन्द्रसिंह––खैर बताओ कि इस तस्वीर को तुमने क्योंकर पाया?
तारासिंह––(इधर-उधर देखकर) भूतनाथ की स्त्री से।
तारासिंह की इस बात को सुनकर सब कोई चौंक पड़े, खास कर देवीसिंह को तो बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने हैरत की निगाह से अपने लड़के तारासिंह की तरफ देखकर पूछा––
देवीसिंह––भूतनाथ की स्त्री तुम्हें कहाँ मिली?
तारा––उसी जंगल में जिसमें आपने और भूतनाथ ने उसे देखा था, बल्कि उसी झोपड़ी में जिसमें भूतनाथ और आप उसके साथ गये थे और लाचार होकर लौट आये थे। आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री ही थी।
देवीसिंह––(आश्चर्य से) हैं, क्या वह वारतव में भूतनाथ की स्त्री थी?
तारासिंह––जी हाँ, आप और भूतनाथ नकाबपोशों के फेर में यद्यपि कई दिनों तक परेशान हुए परन्तु उतना हाल मालूम न कर सके जितना मैं जान आया हूँ।
इस समय दरबार में आपस वालों के सिवाय कोई गैर आदमी ऐसा न था जिसके सामने इस तरह की बातों के कहने-सुनने में किसी तरह का खयाल होता, अतएव बड़ी उत्कण्ठा के साथ सब कोई तारासिंह की बातें सुनने के लिए तैयार हो गये और देवीसिंह का तो कहना ही क्या जिनका दिल तूफान में पड़े हुए जहाज की तरह हिचकोले खा रहा था, उन्हें यकायक यह खयाल पैदा हुआ कि अगर वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी तो दूसरी औरत भी जरूर चम्पा ही रही होगी, जिसे नकाबपोशों के मकान में देखा गया था, अतः बड़े ताज्जुब के साथ अपने लड़के तारासिंह से पूछा, "क्या तुम बता सकते [ २२५ ]होकि जिन दो औरतों को हमने नकाबपोशों के मकान में देखा था वे कौन थीं?"
तारासिंह––उनमें से एक तो जरूर भूतनाथ की स्त्री थी मगर दूसरी के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं लगा।
देवीसिंह––(कुछ सोच कर) दूसरी तुम्हारी माँ होगी?
तारासिंह––शायद ऐसा ही हो मगर विश्वास नहीं होता।
तेजसिंह––तुम्हें यह कैसे निश्चय हुआ कि वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी?
तारासिंह––उसने स्वयं भूतनाथ की स्त्री होना स्वीकार किया बल्कि और भी बहुत-सी बातें ऐसी कहीं जिससे किसी तरह का शक नहीं रहा।
देवीसिंह––और तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि नकाबपोशों के घर में जाकर हम लोगों ने किसे देखा या जंगल में भूतनाथ की स्त्री हम लोगों को मिली थी और हमलोग उसके पीछे-पीछे एक झोंपड़ी में जाकर सूखे हाथ लौट आये थे?
तारासिंह––यह सब हाल मुझे बखूबी मालूम है क्योंकि उस समय मैं भी उसी जंगल में था जिस समय आपने भूतनाथ की स्त्री को देखा और उसके पीछे-पीछे गये थे। इस समय आप यह सुनकर और ताज्जुब करेंगे कि आपसे अलग होकर भूतनाथ ने उसी दिन अर्थात् कल संध्या के समय उन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार कर लिया जिनकी सूरत यहाँ दरबार में देखकर दारोगा और जयपाल बदहवास हो गये थे। की
वीरेन्द्रसिंह––(ताज्जुब से) हैं! मगर वे दोनों नकाबपोश तो आज भी यहाँ आये थे जिनका जिक्र तुम कर रहे हो।
तारासिंह––जी हाँ उन्हें तो मैं अपनी आँखों ही से देख चुका हूँ, मगर मेरे कहने का मतलब यह है कि भूतनाथ ने कल जिन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार किया है उनकी सूरतें ठीक वैसी ही हैं जैसी दारोगा और जयपाल ने यहाँ देखी थीं, चाहे ये लोग हों कोई भी।
तेजसिंह––और भूतनाथ ने उन्हें गिरफ्तार कहाँ पर किया?
तारासिंह––उसी खोह के मुहाने पर उसने उन्हें धोखा दिया जिसमें नकाबपोश लोग रहते थे।
देवीसिंह––मालूम होता है कि हम लोगों की तरह तुम भी कई दिनों से नकाबपोशों की खोज में पड़े हो?
तारासिंह––खोज में नहीं, बल्कि फेर में।
वीरेन्द्रसिंह––खैर, तुम खुलासा तौर पर सब हाल बयान कर जाओ, इस तरह पूछने और कहने से काम नहीं चलेगा।
तारासिंह––जो आज्ञा, मगर मेरा हाल कुछ बहुत लम्बा-चौड़ा नहीं। केवल इलना ही कहना है कि मैं भी पाँच-सात दिन से उन दोनों नकाबपोशों के फैसले में पड़ा हूँ और इत्तिफाक से मैं भी उसी खोह के अन्दर जा पहुँचा था जिसमें वे लोग रहते हैं। (कुछ सोच और जीतसिंह की तरफ देखकर) अगर के अगर कोई हर्ज न हो ती दो घण्टे के बाद मुझसे मेरा हाल पूछा जाय।
जीतसिंह––(महाराज की तरफ देखकर और कुछ इशारा पाकर) खर कोई [ २२६ ]चिन्ता नहीं, मगर यह बताओ कि इस दो घण्टे के अन्दर तुम क्या काम करोगे?
तारासिंह––कुछ भी नहीं, मैं केवल अपनी माँ से मिल लूँगा और स्नान-ध्यान से छुट्टी पा लूँगा।
देवीसिंह––(धीरे से) आज-कल के लड़के भी कुछ विचित्र ही पैदा होते हैं, खास कर ऐयारों के।
इसके जवाब में तारासिंह ने अपने पिता की तरफ देखा और मुस्कुराकर सिर झुका लिया। यह बात देवीसिंह को कुछ बुरी मालूम हुई मगर बोलने का मौका न देखकर चुप रह गये।
तेजसिंह––(तारासिंह से) आज जब हम लोग तुम्हारे न मिलने से परेशान थे तो हमारी परेशानी को देखकर नकाबपोशों ने कहा था कि तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद नहीं करना चाहिए, आशा है कि वह घण्टे-भर के अन्दर ही यहाँ आ पहुँचेगा। और वास्तव में हुआ भी ऐसा ही, तो क्या नकाबपोशों को तुम्हारा हाल मालूम था? यह बात नकाबपोशों से भी पूछी गई थी मगर उन्होंने कुछ जवाब न दिया और कहा कि 'इसका जवाब तारा ही देगा।'
तारासिंह––नकाबपोशों की सभी बातें ताज्जुब की होती हैं। मैं नहीं जानता कि उन्हें मेरा हाल क्योंकर मालूम हुआ।
तेजसिंह––क्या तुम्हें इस बात की खबर है कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने तुम्हें और भैरोंसिंह को बुलाया है?
तारासिंह––जी नहीं।
तेजसिंह––(कुमार की चिट्ठी तारासिंह को दिखाकर) लो, इसे पढ़ो।
तारासिंह––(चिट्ठी पढ़कर) नकाबपोशों ही के हाथ यह चिट्ठी आई होगी?
तेजसिंह––हाँ, और उन्हीं नकाबपोशों के साथ तुम दोनों को जाना भी पड़ेगा।
तारासिंह––जब मर्जी होगी, हम दोनों चले जायेंगे।
इसके बाद महाराज की आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गये। तारासिंह भी महल में अपनी माँ से मिलने के लिए चला गया और घण्टे भर से ज्यादा देर तक उसके पास बैठा बातचीत करता रहा, इसके बाद जब महल से बाहर आया तो सीधे जीतसिंह के डेरे में चला गया और जब मालूम हुआ कि वे महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये हुए हैं तो खुद भी महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास महल में ही चला गया।
हम नहीं कह सकते कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तारासिंह में देर तक क्या-क्या बातें होती रहीं, हाँ इसका नतीजा यह जरूर निकला कि तारासिंह को पुनः अपना हाल किसी से न कहना पड़ा, अर्थात् महाराज ने उसे अपना हाल बयान करने सेमाफी दे दी और तारसिंह को भी जो कुछ कहना-सुनना था, महाराज से ही कह-सुनकर छुट्टी पा ली। औरों को तो इस बात का ऐसा खयाल न हुआ, मगर देवीसिंह को यह चालाकी बुरी मालूम हुई और उन्हें निश्चय हो गया कि तारासिंह और चम्पा दोनोंमाँ-बेटे मिले हुए हैं और साथ ही इसके बड़े महाराज भी इस भेद को जानते हैं, मगर [ २२७ ]ताज्जुब है कि ऐयारों पर प्रकट नहीं करते। इसका कोई-न-कोई सबब जरूर है, और तब देवीसिंह की हिम्मत न पड़ी कि अपने लड़के को कुछ कहें या डाटें।
दो घण्टे रात जा चुकी थी जब महाराज सुरेन्द्रसिंह ने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को अपने पास बुलवाया। उस समय जीतसिंह पहले ही से महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास बैठे हुए थे, अतः जब दोनों आदमी वहाँ आ गये तो दो घण्टे तक तारासिंह के बारे में बातचीत होती रही और इसके बाद महाराज आराम करने के लिए पलंग पर चले गये। वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अपने-अपने कमरे में चले आये।