पंज प्यारे

पंज प्यारे अथवा पाँच प्यारे (पंजाबी: ਪੰਜ ਪਿਆਰੇ , शाब्दिक अर्थ :पाँच प्यारे लोग), उन पाँच सिखों को कहते हैं जो गुरु गोविन्द सिंह के आह्वान पर धर्म की रक्षा के लिये अपना-अपना सिर कटवाने के लिये सहर्ष तैयार हुए थे और जिन्हें गुरुजी ने अमृत पिलाया था। पंच प्यारे ही सम्पूर्ण सिख समाज का सामूहिक प्रतिनिधित्व करते हैं।

पंज प्यारे
एक चित्र जिसमें गुरु गोविन्द सिंह और पंच प्यारे (दया सिंह, धरम सिंह, साहिब सिंह, मोहकाम सिंह और हिम्मत सिंह) प्रदर्शित हैं।

पंज प्यारे चुनाव की कथा

ऐसा माना जाता है कि जब मुगल शासनकाल के दौरान जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। तब उस समय सिख धर्म के गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में सिख समुदाय को आमंतया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। उस समय गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुँचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहाँ मौजूद सभी सिख आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय दयासिंह (पूर्वनाम- दयाराम) नामक एक व्यक्ति आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिन्द सिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार धर्मदास (उर्फ़ धरम सिंह नागर) आगे आये जो मेरठ जिले के सैफपुर करमचंदपुर(हस्तिनापुर के पास) गाँव के निवासी थे। यह जाति से गुर्जर थे। गुरुसाहिब उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गुरु गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की माँग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय (उर्फ़ हिम्मत सिंह) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुसाहिब पुनः बाहर आए और एक और सिर की माँग की तब द्वारका के युवक मोहकम चन्द (उर्फ़ मोहकम सिंह) आगे आए। इसी तरह पाँचवी बार फिर गुरुसाहिब द्वारा सिर माँगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहाँ सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह जी केसरिया बाणा पहने पाँच सिक्ख खालसा के साथ बाहर आए। पाँचों नौजवान वही थे जिनके सिर के लिए गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुसाहिब और पाँचों नौजवान मंच पर आए, गुरुसाहिब तख्त पर बैठ गए। पाँचों नौजवानों ने कहा गुरुसाहिब हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुसाहिब ने वहाँ उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पाँचों मेरे पंज प्यारे हैं। इस तरह सिख धर्म को पंज प्यारे मिले जिन्होंने बाद में अपनी निष्ठा और समर्पण भाव से खालसा पंथ का जन्म दिया।ऐसे मिले सिख धर्म को पंज प्यारे... गुरु गोविंद सिंह द्वारा बनाए गए पंज प्यारे में से एक भाई धर्म सिंह जी के वंशज आज भी हमारे बीच मौजूद है। जिला मेरठ के हस्तिनापुर के पास एक जाट परिवार से हैं। उनका नाम है भाई गुरप्रीत सिंह ।वे सदा ही समाज सेवा में लगे रहते हैं।

सन्दर्भ

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