गान नाट्य (गीतिनाटक) को ओपेरा (Opera) कहते हैं। ओपेरा का उद्भव 1594 ई.
में इटली के फ़्लोरेंस नगर में "ला दाफ़्ने" नामक ओपेरा के प्रदर्शन से हुआ था, यद्यपि इस ओपेरा के प्रस्तुतकर्ता स्वयं यह नहीं जानते थे कि वे अनजाने किस महत्वपूर्ण कला की विधा को जन्म दे रहे हैं। गत चार शताब्दियों में ओपेरा की अनेक व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई। लेकिन परंपरा और अनुभव के आधार पर यही माना जाता है कि ओपेरा गानबद्ध नाटक होता है, जिसमें वार्तालाप के स्थान पर गाया जाता है। इसका ऐतिहासिक कारण यह है कि 16वीं सदी तक यह माना जाता था कि नाटक पद्य में होना चाहिए। नाटक के लिए पद्य यदि अनिवार्य है तो संगीत के लिए भूमि स्वत: तैयार हो जाती है। क्योंकि काव्य और संगीत पूरक कलाएँ हैं, दोनों ही अमूर्त भावनाओं तथा कल्पनालोकों से अधिक संबंधित हैं। इसलिए जब तक नाटक काव्य में लिखे जाते रहे तब तक विशेष कठिनाई नहीं हुई, लेकिन कालांतर में नाटक की विधा ने गद्य का रूप लिया तथा यथार्थोन्मुख हुई। तभी से ओपेराकारों के लिए कठिनाइयाँ बढ़ती गई। चूँकि ओपेरा का जन्म इटली में हुआ था इसलिए उसके सारे अंगों पर इटली का प्रभुत्व स्वाभाविक था। लेकिन फ्रांस तथा जर्मनी की भी प्रतिभा ओपेरा को सुषमित तथा विकसित करने में लगी थी, इसलिए ओपेरा कालांतर में अनेक प्रशाखाओं में पल्लवित हुआ।
इटली में ओपेरा पाँच अंकों का होता था लेकिन फ्रांस में वह तीन अंकों का ही होता था। इटली में उसका संगीत पक्ष अधिक पुष्ट था, फ्रांस में उसकी विषयवस्तु पर अधिक ध्यान दिया जाता था। लेकिन ओपेरा के इतिहास पर इटली और जर्मनी की ही प्रतिभाओं ने दिशाकारी प्रभाव डाला। नाटक के प्रमुख भेद कामदी (कामेडी) और त्रासदी (ट्रैजेडी) दोनों ही ओपेरा में संनिहित हैं। इटली के ओपेराकार नाटकीय त्रिसंधियों को नहीं स्वीकारते थे। इटली के ओपेराकार संगीत तथा भव्य मंचसज्जा पर ज्यादा ध्यान देते रहे हैं, जबकि अन्य ओपेराकार ओपेरा के नाट्यलेख अर्थात् "लिबरेत्तो" पर केंद्रित रहे हैं। आपेरा में आज तक पाठ (रेसीटेशन) को लेकर काफी कठिनाइयाँ हुई हैं। प्राचीन एकालापों (सालीलॉकीज़) को तो किसी तरह संगीत में निबद्ध किया जाता था लेकिन आज की नाटकीय विधा में एकालापों का कोई स्थान नहीं है। आज वार्तालापों में जो यथार्थता तथा दैनिक अकाव्यात्मकता आ गई है उसे ओपेराकार किस प्रकार संगीत में निबद्ध करें, यह आज के ओपेरा की समस्या है।
नाटकों की भाँति ही ओपेरा की कथा वस्तु भी आरंभ में धार्मिक आख्यानों से ली जाती थी। मध्ययुग में यही आधार ऐतिहासिक वीरगाथाएँ हो गया। इसका अर्थ हुआ कि ओपेरा ग्रीस से चलकर रोम आया। इस कारण उस काल के ओपेरों में दो ही भावनाएँ प्रमुख हैं, महत्त्वाकांक्षा और कामना। आज नाटक जीवन के बीच खड़ा हुआ है इसलिए ओपेरा को भी वहीं आना पड़ा है और यह यात्रा 400 वर्षो की है। कथावस्तु के साथ-साथ संगीत के तालमेल में भी परिवर्तन हुआ है। आरंभ में ओपेरा में नाट्यलेख प्रमुख होता और संगीत गौण, लेकिन क्रमश: नाटय्लेख गौण होता गया और संगीत ने प्राधान्य ले लिया। पहले कथावस्तु को मनोरंजक बनाने के लिए गान, सहगान तथा समूहगान की व्यवस्था की। इसके बाद अनवरत संगीत के सिद्धांत ने संपूर्ण ओपेरा को ही संगीतमय कर दिया। अब वातावरण, चित्रण, भावदशा आदि सभी के लिए संगीत की योजना होने लगी। इसीलिए ओपेरा में संगीत लेखक का जितना महत्त्व है उतना नाट्यलेखक का नहीं।
सभी कलाओं के आश्रयदाता एक समय में राजा, सामंत हुआ करते थे। इटली में भी तत्कालीन सामंत तथा रईस इस कला के पोषक थे। इसीलिए एक समय तक ओपेरा के अर्थ ही विशाल मंच, भव्य साजसज्जा, विराट् दृश्यांकन आदि थे। पेरिस के किसी ओपेरागृह में प्रवेश करते ही बाक्सों और बाल्कनियों तथा उत्कीर्ण बारजों और छज्जों की दीर्घाओंवाले हॉल के दर्शन होते हैं। ये ओपेरागृह 18वीं और 19वीं सदियों के स्मारक हैं। यहीं बैठकर सामंतवर्ग तथा भद्रलोक ग्लक और मोज़ार्ट, बिथूवेन और वेबर, वैग्नर और वर्दी के महान संगीतमय ओपेरों को देखते रहे हैं। इटली, फ़्रांस और जर्मनी के ओपेरागृहों में ही इन महान ओपेराकारों को अपनी सफलताओं तथा असफलताओं का सामना करना पड़ा है। इटली, 16वीं सदी के आसपास सारी यूरोपीय कला, साहित्य और संस्कृति का केंद्र था। सर्वप्रथम फ़्लोरेंस में ओपेरा खेला गया था। आज जिसकी लिपि उपलब्ध है, वह ओपेरा भी वहीं खेला गया था– "यूरिडिस", सन् 1600 ई में। इसके बाद वेनिस नगर ओपेरा का सबसे बड़ा केंद्र हो गया। सारे यूरोप के कलाप्रिय इस नगर की यात्रा करते और महान ओपेरों को देखकर कृतकृत्य होते थे। सन् 1637 में वेनिस में एक सार्वजनिक ओपेरागृह की स्थापना हुई जिसके कारण ओपेरा पर क्रमश: व्यावसायिकता का प्रभाव हुआ। अब ओपेरा केवल शौक की विधा न रहकर आय का साधन बना। ओपेरा के लिए जिस उन्नत ओपेरागृह की अपेक्षा हुआ करती थी उसके कारण तत्कालीन मंचशिल्प के विकास में नाटकों से कहीं अधिक श्रेय ओपेरों को है। उन दिनों चक्रित मंच (रिवाल्विंग स्टेज) तो आविष्कृत हुए नहीं थे, इसलिए ओपेरा के विशेष काल्पनिक मंचांकनों को मूर्त कर सकना काफी कठिन काम था। चक्रित मंच की समस्या जापान द्वारा 18वीं सदी में दूर हुई।
ओपेरा धीरे-धीरे यूरोप के दूसरे देशों में भी लोकप्रिय होता जा रहा था। अब आस्ट्रिया, फ्रांस, तथा जर्मनी भी इसके केंद्र बन चले थे। सदियों तक इटली के संगीतज्ञों, कलाकारों, नाट्यलेखकों तथा अभिनेताओं का प्राधान्य सारे यूरोप के ओपेरागृहों में रहा। ओपेरा, इटली का राष्ट्रीय कलात्मक उद्योग रहा है। वेनिसीय संगीत, साज सज्जा, अभिनय आदि ही प्रमाण माने जाते थे। फ्रांस के मंच पर भी इतालवी भव्य साज सज्जा में ही जर्मन संगीतज्ञों द्वारा कला की यह अदृभुत विधा मंचित होती रही। ओपेरा की भाषा आरंभ में इतालवी फ्रेंच रही। कालांतर में फ्रांस की भाषा भी प्रचलित हुई। लेकिन अन्य देशों में ओपेरा की भाषा इतालवी ही बनी रही। इस क्षेत्र में इटली का प्रभाव यहाँ तक था कि अनेक बार इतालीयेतर ओपेराकार भी अपना नाम इतालीय रख लिया करते थे।
वैसे तो फ्रांस के संगीतज्ञों का भी इसमें योग रहा है। रोमियों ही संभवत: एक ऐसा फ्रांसीसी नाम है जो जन्मना फ्रांसीसी भी है और प्रतिभाशाली संगीतज्ञ भी। अन्यथा न फ्रांसीसी कभी संगीत में श्रेष्ठ रहे हैं और न इतालीय कभी नाट्यलेख में। फ्रांस में ओपेरा की नीवं डालनेवाला जेवान्नी बतिस्ता लुली भी इतालीय था, जो लुई 14वें के शासनकाल में लाया गया था। रोमियो ही संभवत: पहला ओपेराकार है जिसने वाद्यवृंद का उपयोग आँधी, समुद्रादि के वर्णनों के लिए किया। यद्यपि लुली यह प्रयोग कर चुका था, तथापि इसे व्यवस्था रोमियो ने दी। जर्मन ओपेराकारों की सबसे अधिक तथा महत्वपूर्ण देन दार्शनिकता रही है। पहला जर्मन ओपेराकार ग्लक है, जो ओपेरा का सुधारक कहलाता है। आज 200 वर्षों के बाद भी उसकी रचनाओं को सुनना कलात्मक अनुभव है। ग्लक ने संगीत के दार्शनिक पक्ष को पुष्ट बनाया और ओपेरा में उसे अभिव्यक्त किया।
ओपेराकारों में दूसरा महत्वपूर्ण नाम मोज़ार्ट का है। मोज़ार्ट ने वैसे तो आठ बरस की उम्र में ही एक ओपेरा की रचना कर डाली थी लेकिन जो ओपेरा के इतिहास में महत्वपूर्ण है उसकी रचना उसने 24 वर्ष की अवस्था में की और वह था "इडोमोनिया" (सन् 1781 ई.)। मोज़ार्ट अद्वितीय निष्णात ओपेराकार माना जाता है। ओपेरा के इतिहास में जिन क्लासिकीय ओपेरों की गणना है उनमें "मैजिक फ़्यूट" का अन्यतम स्थान है। इस ओपेरा को भविष्य के जर्मन ओपेरों का आधार माना जाता है। इस ओपेरा में उसे दिव्यता प्राप्त हुई थी। बिथूवेन के नाम के साथ विद्रोह की भावना मूर्त हो जाती है। ओपेरा के इतिहास में वह शैली या बायरन के समान है। उसका विद्रोही संगीत हमारे अधिक निकट है।
जर्मन रोमांटिक आंदोलन का अभूतपूर्व ओपेराकार वेबर है। बच्चों के लिए भी उसका एक प्रसिद्ध ओपेरा है। ओपेरों द्वारा उसने रोमांटिक ओपेरों को वही गौरव दिलवाया जो राजसभावाओंवाले ओपेरों को प्राप्त था। "यूरोआंते" में कोई वार्तालाप नहीं, बल्कि अनवरत संगीत ही है। सब जर्मन ओपेराकार गायकों से अधिक वाद्यवृंद पर जोर देते रहे हैं।
ओपेराकारों में वेबर जहाँ सुंदर था वहाँ रिचर्ड वैग्नर (1813-1883) कुरूप, नाटा, बड़े सिर का, घमंडी और स्वार्थी था। लेकिन 19वीं सदी के कलात्मक जीवन का वही प्रमुख स्तंभ भी था। यही एकमात्र ओपेराकार था जो स्वत: नाट्यलेख भी लिखता था। इसके ओपेरा का नाम है "द रिंग" जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैग्नर के विचारों को मंचसज्जा के तत्कालीन ओपेरागृह मूर्त नहीं कर पाते थे इसलिए बेरुथ नामक कस्बे में उसने ओपेरागृह खोला जो आगे चलकर ओपेरा के इतिहास में सांस्कृतिक केंद्र के रूप में स्वीकार किया गया। वैग्नर का ही समकालीन इतालीय ओपेराकार था वर्डी (1813-1901) जो बड़ी विषम परिस्थितियों में इटली के ओपेरा के क्षेत्र में आया था। रासिनी ने मंच से अवकाश ले लिया था। बेलिनी की मृत्यु हो चुकी थी और दानीज़ेत्ती पागल हो गया था। वर्डी के सामने भी समकालीन शासकों ने अवरोध खड़े कर रखे थे। "स्वाधीनता" का उच्चारण ही कठिन हो गया था। वर्डी ने पहली बार समकालीन जीवन पर ओपेरा में त्रासदी प्रस्तुत की। अभी तक दर्शक आधुनिक भूषा में त्रासदी देखने के अभ्यस्त नहीं थे। स्वेज़ नहर के उद्घाटन के अवसर पर वर्डी ने काहिरा में एक ओपेरा प्रस्तुत किया था। चूँकि वह वैग्नर का समकालीन था, इसलिए प्राय: इतिहासज्ञ वर्डी के प्रति अन्याय कर जाते हैं।
पिछले दिनों में पूर्वी यूरोप में सोवियत के अतिरिक्त यूगोस्लाविया में भी ओपेरा को संजीवित और विकसित करने के प्रयत्न हुए हैं। संसारप्रसिद्ध ओपेरा गायिका मिरियाना रादेव ज़ाग्रेब की ही हैं और वहाँ के राष्ट्रीय ओपेरागृह की प्रधान तारिका हैं।
पूर्वी देशों में ओपेरा के क्षेत्र में चीन ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वस्तुत: चीनी ओपेरा संसार के प्राचीनतम ओपेरों में है और यद्यपि पश्चिमी मंचसमीक्षकों ने उसका उल्लेख नहीं किया है, चीनी ओपेरा अनेक दृष्टियों से अपने कृतित्व एवं प्रदर्शनों में अपना सानी नहीं रखता। भारत में भी इधर ओपेरा लिखने और ओपेरागृह संगठित करने के कुछ प्रयास होने लगे हैं।
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