हज़रत हुसैन (अल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब, यानि अबी तालिब के पोते और अली के बेटे अल हुसैन, 626 हि.
-680 हि.) हज़रत अली अल्हाई सलाम दूसरे बेटे थे और इस कारण से पैग़म्बर मुहम्मद के नाती। आपका जन्म मक्का में हुआ। उनकी माता का नाम फ़ातिमा ज़हरा था।
हुसैन इब्न अली حسين بن علي | |
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हज़रत इमाम हुसैन का रौज़ा, इराक | |
जन्म | ल. 8 जनवरी 626CE (4/5 शाबान 04 AH) |
मौत | ल. 10 अक्टूबर 680 (10 Muharram 61 AH) कर्बला, उमय्यद सल्तनत | (उम्र 54)
मौत की वजह | कर्बला की लड़ाई में शहीद हुए |
समाधि | इमाम हुसैन रौजा, ईराक 32°36′59″N 44°1′56.29″E / 32.61639°N 44.0323028°E |
जाति | अरब (कुरैष) |
पदवी | सूची ash-Shahīd (Arabic for Father of Freedom) (Arabic for The Martyr) as-Sibt (Arabic for The Grandson) Sayyidu Shabābi Ahlil Jannah (Arabic for Leader of the Youth of Paradise) ar-Rashīd (Arabic for The Rightly Guided) at-Tābi li Mardhātillāh (Arabic for The Follower of Gods Will) al-Mubārak (Arabic for The Blessed) at-Tayyib (Arabic for The Pure) Sayyidush Shuhadā (Arabic for Master of the Martyrs) al-Wafī (Arabic for The Loyal) Üçüncü Ali (Turkish for Third Ali) |
अवधि | 670 – 680 CE |
पूर्वाधिकारी | हसन इब्न अली |
उत्तराधिकारी | अली इब्न हुसैन जैन अल-आबिदीन |
धर्म | इस्लाम |
जीवनसाथी | शहर बानू उम्मे रुबाब उम् लैला उम् इस्हाक़. |
बच्चे | सूची |
माता-पिता | अली इब्न अबू तालिब फ़ातिमा ज़हरा |
हज़रत हुसैन को इस्लाम में एक शहीद का दर्ज़ा प्राप्त है। शिया मान्यता के अनुसार वे यज़ीद प्रथम के कुकर्मी शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए सन् 680 AH में कुफ़ा के निकट कर्बला की लड़ाई में शहीद कर दिए गए थे। उनकी शहादत के दिन को आशूरा (दसवाँ दिन) कहते हैं और इस शहादत की याद में मुहर्रम (उस महीने का नाम) मनाते हैं।
हुसैन अलैहिस्स्लाम का जन्म ३/४ शाबान हिजरी को पवित्र शहर मदीनेमें हुआ था।उनके पिता का नाम अली तथा माता का नाम फातिमा ज़हरा था| आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे | इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स.) के साथ रहे।
मुहम्मद (स.अ.व्.) साहब को अपने नातियों से बहुत प्यार था पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि "हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।"
मुआविया ने अली अ० से खिलाफ़त के लिए लड़ाई लड़ी थी। अली के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र हसनअ० को खलीफ़ा बनना था। मुआविया को ये बात पसन्द नहीं थी। वो हसन अलैहिस्स्लाम से संघर्ष कर खिलाफ़त की गद्दी चाहता था। हसन अलैहिस्स्लाम ने इस शर्त पर कि वो मुआविया की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे, मुआविया को हुकुमत दे दी। लेकिन इतने पर भी मुआविया प्रसन्न नहीं रहा और अंततः उसने हसन अलैहिस्स्लाम को ज़हर पिलवाकर शहीद कर डाला।सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे। जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहान्त हो गया , व उसके बेटे यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत (आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया।और इस्लामकी रक्षा हेतु वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये। मुआविया से हुई संधि के मुताबिक,मुआविया के मरने बाद हसन अलैहिस्स्लाम के पास फिर उनके छोटे भाई हुसैन अलैहिस्स्लाम खलीफ़ा बनेंगे पर मुआविया को ये भी पसन्द नहीं आया। उसने हुसैन अलैहिस्स्लाम को खिलाफ़त देने से मना कर दिया। इसके दस साल की अवधि के आखिरी 6 महीने पहले मुआविया की मृत्यु हो गई। शर्त के मुताबिक मुआविया की कोई संतान खिलाफत की हकदार नहीं होगी, फ़िर भी उसने अपने बेटे को याज़िद प्रथम खलीफ़ा बना दिया और इमाम हुसैन अलैहिस्स्लाम से बेयत मागने लगा जिस पर हुसैन अलैहिस्स्लाम ने कहा "मेरे जेसा तुझ जेसे कि बेयत कभी नही कर सकता"। सन् ६१ हिजरी 680 ई० में वे करबला के मैदान में अपने अनुचरों सहित, कुफ़ा के सूबेदार की सेना के द्वारा शहीद कर दिए गए हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि----
इस्लाम में इस दिन (मुहर्रम मास की 10वीं तारीख़) को बहुत पवित्र माना जाता है और ईरान, इराक़, पाकिस्तान, भारत, बहरीन, जमैका सहित कई देशों में इस दिन सरकारी छुट्टियाँ दी जाती हैं।
नोहा का अर्थ है दुख प्रकट करना, गम करना या याद करके रोना। करबला की जंग में शहीद हुए लोगों को और उनकी शहादत को याद करना और पद्य रूप में प्रकट करने को नोहा ख्वानी कहते हैं। नोहा ख्वानी की juloos majlis में नोहा ख्वानी करके अपने अक़ीदे को पेश करते हैं।
और पेश हैं नोहे की कुछ पंक्तियाँ जो मुहर्रम के महीने में पढ़ी और पढाई जाती हैं
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