काम चल रहा है
रक्षाबंधन पर्व जैन समुदाय द्वारा हर्षपूर्वक मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन विष्णु कुमार मुनिराज ने ७०० मुनियों पर हो रहे उपसर्ग को दूर किया था। जैन धर्म में रक्षाबंधन इसी कारण से मनाया जाता है।
जैन और हिन्दू धर्म की साझा संस्कृति का इतिहास रहा है। जिस तरह हिन्दू धर्म में रक्षा बंधन के त्योहार को मनाने को लेकर पुराणों में भिन्न-भिन्न कथाएं मिलती है उसी तरह जैन धर्म में भी रक्षा बंधन को मनाने के पीछे यह मान्यता है कि इस कथा के अनुसार हस्तिनापुर के राजा महापद्म ने अपने बड़े पुत्र पद्मराज को राजभार सौंप वैराग्य धारण किया। उनके साथ उनका छोटा पुत्र विष्णुकुमार भी अपने पिता के साथ अविनाशी मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग पर चल दिए। उधर उज्जयिनी नगरी के राजा श्रीवर्मा के मंत्री बलि, नमुचि, बृहस्पति और प्रहलाद थे। चारों जैन धर्म के कट्टर विपक्षी थे। एक बार यहां अकंपनाचार्य मुनि अपने 700 शिष्यों के साथ पधारे। नगर के बाहर उद्यान में वे ठहरे। आचार्य को जब ज्ञात हुआ कि राजा के चारों मंत्री अभिमानी है और जैन धर्म के विरोधी हैं। आचार्य ने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि जब राजा और मंत्री यहां आएं तो मौन धारण करके ध्यानमग्न बैठे। इसके द्वेषवश विसंवाद नहीं होगा और विवाद उत्पन्न नहीं हो सकेगा।गुरु की आज्ञा के पालन की हामी सभी ने भर दी। इस समय श्रुतसागर नामक मुनि मौजूद नहीं थे। इस कारण उन्हें इसका पता नहीं चला। जब राजा मंत्रियोंसहित वन में मुनि के दर्शनों को पधारे तो मुनि संघ मौन था। इसे देख एक मंत्री ने कहा देखिए राजा ये मुनि नहीं बोल रहे हैं क्योंकि इनमें किसी प्रकार की विद्या नहीं है। इसके बाद मंत्रियों ने मुनियों की घोर निंदा की।
इस समय श्रुतसागर मुनि नगर से लौट रहे थे। उन्होंने जब यह बात सुनी तो मंत्रियों से शास्त्रार्थ करने को कहा। शास्त्रार्थ में मंत्री बुरी तरह पराजित हुए और मुनि के तर्कों के आगे राजा नतमस्तक हो गए। मंत्री इसे अपमान समझ उस समय तो वहां से चले गए। इधर श्रुतसागर मुनि ने आकर गुरु को सारा वृत्तांत सुनाया तब आचार्य ने उन्हें जंगल में उसी स्थान पर जाकर तप करने को कहा जहां उन्होंने शास्त्रार्थ किया था ताकि संघ के अन्य लोगों पर उपसर्ग नहीं आए।
यह तो निश्चित था कि मंत्री अपमान से कुपित हो उपसर्ग करेंगे। ऐसा ही हुआ। ध्यानमग्न मुनि श्रुतसागर पर मंत्रियों ने मौका पाकर हमला किया। उन्होंने जैसे ही तलवार उठाई वनदेव ने आकर उन्हें जड़ कर दिया। जब इस बात की खबर राजा को लगी तो उन्होंने मंत्रियों को देश निकाला दे दिया। अब चारों मंत्री वहां से निकल हस्तिनापुर पहुंचे। उन्होंने वहां के राजा पद्मराय से नौकरी मांगी। राजा ने उन्हें योग्य पदों पर आसीन किया। बलि नामक मंत्री ने पद्मराय का विश्वास हासिल करने के लिए कूटनीति और छल से एक विद्रोही राजा को उसके अधीन करा दिया। अब क्या था पद्मराय ने खुश हो उससे वर मांगने को कहा।
उसने कहा- राजन् वक्त आने पर मांग लूंगा। कुछ समय पश्चात अकंपनाचार्य मुनि ससंघ हस्तिनापुर पधारे। राजा पद्मराय अनन्य जैन भक्त थे। बलि को जब इसकी जानकारी मिली तो उसके अंदर बदले की भावना बलवती हो गई। उसने राजा से अपना वर मांगा और कहा कि राजन् मुझे सात दिन के लिए राजा बना दीजिए। राजा ने उसे वर दे दिया और राजपाट देकर निश्चिंत हो महल में चले गए। इधर बलि ने अपनी चालें चलना शुरू की। उसने आचार्यसहित 700 मुनियों के संघ पर उपसर्ग करना प्रारभ किया, जिस स्थल पर मुनि संघ ठहरा था वहां चारों ओर कांटेदार बागड़ बंधवा कर उसे नरमेध यज्ञ का नाम दे वहां जानवरों के रोम, हड्डी, मांस, चमड़ा आदि होम में डालकर यज्ञ किया। इससे मुनियों को फैली दुर्गंध और दूषित वायु से परेशानी होने लगी। उन्होंने अन्न-जल त्याग कर समाधि ग्रहण की। मुनियों के गले रुंधने लगे, आंखों में पानी आने लगा और उनके लिए सांस लेना भी मुश्किल हो गया।
उनकी इस विपत्ति को देख नगरवासियों ने भी अन्न-जल त्याग दिया। उधर मिथिलापुर नगर के वन में विराजित सागरचंद्र नामक आचार्य ने अवधि ज्ञान से मुनियों पर हो रहे इस उपसर्ग को जान अपने शिष्य पुष्पदंत को कहा तुम आकाशगामी हो जाओ और धरणीभूषण पर्वत पर विष्णुकुमार मुनि से इस उपसर्ग को दूर करने का विनय करो वे विक्रिया ऋद्धि प्राप्त कर चुके हैं। क्षुल्लक पुष्पदंत गुरु की आज्ञा पाकर पर्वत पर पहुंचे और मुनियों की रक्षा का अनुरोध किया। विष्णुकुमार मुनि अविलंब हस्तिनापुर आए।
उन्होंने पद्मराय को धिक्कारा कि तुम्हारे राज्य में ऐसा अनर्थ क्यों हो रहा है तब राजा ने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया जिसे जान मुनि 52 अंगुल का शरीर बना ब्राह्मण का वेश धारण कर बलि के पास गए। बलि ने उनका आदर-सत्कार किया और उनसे सेवा का मौका देने को कहा। इस पर ब्राह्मण वेशधारी मुनि ने उनसे तीन डग जमीन मांगी। मुनि ने अपनी ऋद्धि का प्रयोग करते हुए शरीर बड़ा किया और जमीन नापना शुरू किया। पहले डग में सुमेरू पर्वत और दूसरे को मानुषोत्तर पर्वत पर रखा।
जब तीसरे डग के लिए जमीन नहीं बची तो उन्होंने बलि से कहा अब क्या करूं तो बलि ने कहा अब मेरे पास जमीन तो नहीं है आप मेरी पीठ पर डग रख लीजिए। मुनि ने तीसरा डग बलि की पीठ पर रखा तो बलि कांपने लगा। देव व असुरों के आसन कंपायमान हो गए। सभी अवधि ज्ञान से वृत्तांत जान वहां आए और मुनि से क्षमा की प्रार्थना की। मुनि ने बलि की पीठ से चरण हटाया और असली रूप में प्रकट हुए। उसी समय बलि ने यज्ञ बंद कर मुनियों को उपसर्ग से दूर किया। राजा भी मुनि के दर्शनार्थ वहां पहुंच गए।
नगरवासी सभी श्रावकों ने मुनियों की वैयावृत्ति की उनकी सेवा की और मुनियों को चैतन्य अवस्था में लाए। मुनि पूर्णतः स्वस्थ हो आहार पर निकले तो श्रावकों ने खीर, सिवैया आदि मिष्ठान्न आहार हेतु बनाए थे। मुनियों को आहार करा श्रावकों ने भी खाना खाया और खुशियां मनाई।
कथा:- यह दिन श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। इसी दिन मुनियों की रक्षा हुई थी। इस दिन को याद रखने के लिए लोगों ने हाथ में सूत के डोरे बांधे। तभी से यह रक्षा बंधन के पर्व के रूप में माना जाने लगा।
जैन ग्रन्थों में कथा आती है
This article uses material from the Wikipedia हिन्दी article रक्षाबंधन(जैन धर्म), which is released under the Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 license ("CC BY-SA 3.0"); additional terms may apply (view authors). उपलब्ध सामग्री CC BY-SA 4.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। Images, videos and audio are available under their respective licenses.
®Wikipedia is a registered trademark of the Wiki Foundation, Inc. Wiki हिन्दी (DUHOCTRUNGQUOC.VN) is an independent company and has no affiliation with Wiki Foundation.