फ्रांस्वा बर्नियर: विदेशी यात्री

फ्रांस्वा बर्नियर (अंग्रेजी:François Bernier) फ्रांस का निवासी था। वह एक चिकित्सक , राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था। वह मुगल काल में अवसरों की तलाश में १६५६ ई.

भारत आया था। वह 1656 ई. से 1668 ई. तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुग़ल-दरबार से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखे। प्रारम्भ में उसने मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह के चिकित्सक के रूप में कार्य किया। बाद में एक मुग़ल अमीर दानिशमन्द खान के पास कार्य किया था।

फ्रांस्वा बर्नियर
फ्रांस्वा बर्नियर: विदेशी यात्री
Édition de 1830 des Voyages dans les États du Grand Mogol.
व्यक्तिगत जानकारी
वृत्तिक जानकारी

बर्नियर का जन्म फ्रांस के जोई नामक स्थान पर 1620 ई• में हुआ था। बचपन से ही उसे घूमने-फिरने का शौक था। अतः छात्र जीवन से ही यूरोप के कई देशों की यात्रा उसने कर ली थी। डॉक्टरी की पढ़ाई कर वह पेशे से चिकित्सक बना। भारत यात्रा की अपनी प्रबल इच्छा के कारण 1658 ई• में सूरत पहुंचा। उसने आगरा, अहमदाबाद, कश्मीर, बंगाल, राजमहल, कासीमबाजार, मुस्लिमपट्टी तथा गोलकुंडा की यात्राएं की। मुगल साम्राज्य के संकट के काल में इस विदेशी यात्री का हिंदुस्तान आगमन हुआ। यह वह समय था जब शाहजहां के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार को लेकर भयंकर संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष की कई घटनाओं का वह प्रत्यक्षदर्शी बना। इसके पश्चात उसने औरंगजेब की विजय एवं उसके राज्यारोहण को भी देखा था। अपने करीब 10 वर्ष के भारत प्रवास में उसने भारत के कई नगरों की यात्रा की। भारत के राजनीतक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति का विस्तृत वर्णन बर्नियर ने अपने यात्रा वृतांत 'ट्रैवल्स इन द मुगल एंपायर' में किया है।

बर्नियर की दृष्टि अत्यन्त खोजी एवं जिज्ञासापूर्ण थी। उसने विभिन्न क्षेत्रों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां संकलित की है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसने उत्तराधिकार के युद्ध, मुगल प्रशासनिक व्यवस्था, राजस्व व्यवस्था एवं कृषकों की स्थिति जैसे विषयों पर सामग्री संकलित की है। उसने अपने विवरण को अत्यन्त रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है। उसका विवरण अधिक प्रमाणिक है इस संदर्भ में एक फ्रांसीसी राजनीतिज्ञ व लेखक दा मोन्सयों ने बर्नीयर की प्रशंसा करते हुए कहा है कि फ्रांस से कभी भी ऐसा यात्री बाहर नहीं गया जिसमें पर्यवेक्षण की इतनी अधिक क्षमता रही हो, न ही कोई वृतांत इतनी जानकारी सरलता एवं सत्यनिष्ठा से लिखा गया है।

उसने जिन विषयों पर विशेष ध्यान दिया है वे निम्न है:-

शहरों एवं प्रांतों के बारे में वर्णन :- बर्नियर ने शहरों एवं प्रांतों के बारे में पैनी दृष्टि से देखा एवं उसके बारे में काफी रोचक तरीके से अपने ग्रंथ में विवरण प्रस्तुत किया। उसने इन क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्थाओं के बारे में टिप्पणी की है। उसका विवरण उसकी समझ एवं उसकी सक्षम दृष्टि का परिचायक है। उसने आगरा एवं दिल्ली के बारे में जो वर्णन किया है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह आगरा के बाजारों, अमीरों के महलों एवं अन्य शाही भवनों के बारे में लिखता है। पश्चिम के शहरों के भावनो से तुलना करते हुए लिखता है कि यहां के भवन किसी भी तरीके से कम आलीशान नहीं है। उसने इन नगरों की बसावट एवं योजना के बारे में लिखा है। उसने इन नगरों के दस्तकारी उद्योग के बारे में महत्वपूर्ण सामग्री का आकलन किया है।

चरित्रचित्रण में विशिष्टता:- बर्नियर को चरित्रचित्रण में महारत हासिल थी और उसके द्वारा दिए गए वर्णनों से प्रतीत होता है कि उसे व्यक्तियों के चरित्रों एवं उनकी आदतों को समझने एवं उनके गहन अध्ययन में विशेष रूचि थी। उसने तत्कालीन समय के सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों के चरित्रों को सजीव तरीके से चित्रित किया है। जिन व्यक्तियों के बारे में उसने लिखा है उनमें मुख्य है दाराशिकोह, शूजा, औरंगजेब, मुराद एवं जहांआरा बेगम। उसके वर्णन उसे एक मनोवैज्ञानिक की श्रेणी में खड़ा कर देते हैं। शाहजहां के पुत्र एवं पुत्रीयों के आचार-व्यवहार का उसने विस्तृत वर्णन किया है। दाराशिकोह एवं औरंगजेब एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे। इसलिए उनके बारे में उसकी टिप्पणी अत्यंत रोचक है।

उसने शाहजहां के जेष्ठपुत्र दाराशिकोह के बारे में लिखा है- दारा में अच्छे गुणों का अभाव नहीं था तथा वह अत्यंत उदार था, किंतु उसकी स्वयं अपने विषय में राय बड़ी ऊंची थी। उसका विश्वास था कि वह अपने दिमाग की शक्ति से हर काम कर सकता है। वह उन लोगों से बड़ी रूखाई से पेश आता था, जो उसे सलाह देने एवं वास्तविक स्थिति से अवगत कराने की चेष्टा करते थे। इसी कारण उसके नजदीकी मित्र भी उसके भाइयों के षड्यंत्रों तथा चालो के बारे में उसे सतर्क नहीं करते थे। इसी तरह दारा के कट्टर विरोधी औरंगजेब के बारे में बर्नियर की टिप्पणी अत्यंत रोचक है। वह लिखता है कि औरंगजेब में दारा के सामान शिष्टता एवं भद्रतापूर्ण व्यवहार का अभाव था। किंतु उसमें निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता थी तथा अपने सहायकों एवं हितेषीयों का चयन करने में उसकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। वह गंभीर, कुशाग्रबुद्धि एवं अपने विचारों एवं योजनाओं को गुप्त रखने में अत्यंत प्रवीण था। शाहशुजा के बारे में बर्नियर बताता है कि शुजा षड्यंत्र रचने में अत्यंत माहिर था। उसके पास अमीरों को वश में करने की क्षमता थी। मगर उसका सबसे बड़ा दुर्गुण यह था कि वह आमोद-प्रमोद का दास था।

मात्र शहजादे ही नहीं बर्नियर ने मुगल शहजादीयों के बारे में भी अपनी राय प्रस्तुत की है। वह बताता है शहजादी के प्रति शहजाहां को अत्यधिक अनुराग था। वह यह भी बताता है कि शहजादीयों से शादी के उपरांत वह व्यक्ति शाही पद के लिए दावेदारी प्रस्तुत कर सकता था। अतः इस प्रकार की अप्रिय स्थिति को आने ही नहीं दिया जाता था। बर्नियर ने उत्तराधिकार संबंधी एवं सामूगढ़ का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। बर्नियर बताता है कि चंपतराय बुंदेला ने बुंदेलखंड के जंगलों में रास्ता बताने एवं चंबल नदी पार कराने में औरंगजेब की अत्यंत मदद की थी।

युद्ध में पराजय के पश्चात दाराशिकोह जब गुजरात की ओर भागा तब उसकी पत्नी नादिया बानो बेगम बहुत बीमार थी दारा के आग्रह पर बर्नियर ने उसका इलाज किया था। दिल्ली की सड़कों पर जब मैंले -कुचले हाथी पर बैठाकर दारा को घुमाया गया था एवं हत्या की गई थी तब इन सब दृश्यों को बर्नियर ने स्वयं देखा था। इब्नबतूता एवं टैवर्नियर की तरह वह भी ग्वालियर किले का उल्लेख करता है। वह बताता है कि दारा पुत्र सुलेमान शिकोहा एवं मुरादाबाख्श को ग्वालियर किले में मानमंदिर के तहखाने में कैद कर लिया गया था एवं उन्हें औरंगजेब के आदेश से मार डाला गया था।

कृषकों की स्थिति का वर्णन:- बर्नियर ने कृषकों की स्थिति को राजस्व प्रशासनिक व्यवस्था से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। वह लिखता है कि राजस्व प्रशासन में जागीरदार की नियमित स्थानांतरण की नीति प्रचलन में थी। मुगल प्रशासन में यह नीति जागीरदारों पर अंकुश लगाने के लिए लागू की गई थी। लेकिन इसका कृषकों पर बुरा प्रभाव पड़ा। जागीरदार अपनी जागीर के बारे में सदैव खतरा महसूस करते थे। वह जागीरी क्षेत्र कभी भी उसके हाथों से निकल सकता था इसलिए वह किसानों से अधिक से अधिक राजस्व वसूलने का प्रयास करता था। इसके अतिरिक्त वह अपने जागिरी क्षेत्र के विकास में भी कोई रुचि नहीं लेता था। दूसरी तरफ लगान की अधिकतम वसूली से परेशान किसान अपनी कृषि छोड़कर भाग जाते थे। यह भगोड़े किसान या तो कोई अन्य व्यवसाय अपना लेते थे अथवा कभी-कभी वे राजा के क्षेत्र में शरण लेकर कृषि कार्य करते थे। बर्नियर के अनुसार राजाओं के क्षेत्र में किसानों पर करो का भार काम था। इसके अतिरिक्त दूसरे शरणकर्ता जोरतलब जमीदार थे, जो मुगलों को लगान मुश्किल से देते थे। इस प्रकार बर्नियर के वर्णन से मुगल राजस्व प्रशासन की वास्तविक तस्वीर हमें देखने को मिलती है।

आगे बर्नियर बताता है कि हिंदुस्तान के साम्राज्य के विशाल ग्रामीण अंचलों में से कई केवल रेतीली भूमियां एवं बंजर पर्वत ही है। यहां की खेती अच्छी नहीं है और इन इलाकों की आबादी भी कम है। यहां तक कि कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा भी श्रमिकों के अभाव में कृषि विहीन रह जाता है। इनमें से कई श्रमिक गवर्नरों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के फलस्वरुप मर जाते हैं। गरीब लोग जब अपने लोभी स्वामियों की मांगों को पूरा करने में असमर्थ हो जाते हैं तो उन्हें न केवल जीवन-निर्वाह के साधनों से वंचित कर दिया जाता है बल्कि उन्हें अपने बच्चों से भी हाथ धोना पड़ता है। जिन्हें दास बनाकर ले जाया जाता है। इस प्रकार इस अत्यंत निरंकुशता से तंग आकर कृषक गांव ही छोड़ कर चले जाते हैं।

व्यापार एवं सोने-चांदी:- बर्नियर बताता है कि भारत में बाहर के कई देशों से अनेक प्रकार की वस्तुएं लाई जाती हैं। लेकिन इसके भुगतान के रूप में बाहरी व्यापारी सोना-चांदी नहीं लेते, बल्कि यहां की बनी वस्तुएं बाहर ले जाना पसंद करते हैं। यह विनिमय उनके लिए अधिक लाभदायक होता है। इसके अतिरिक्त विदेशी व्यापारी हिंदुस्तान के माल को सोने-चांदी के भुगतान के द्वारा खरीदते हैं। यह सोना- चांदी वापस कभी बाहर नहीं जाता, बल्कि यहीं रह जाता है। यहां इन बहुमूल्य धातुओं को संग्रह करने की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के बारे में बर्नियर की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह लिखता है कि यदि मुगल साम्राज्य सोने-चांदी को आत्मसात करने के लिए एक गहरे सोते के समान है किंतु ये बहुमूल्य धातुएं अन्य स्थानों की तुलना में चलन में अधिक नहीं है। इसके विपरीत यहां के लोगों के जीवन स्तर में दुनिया के अन्य स्थानों की अपेक्षा समृद्धि की झलक कम दिखाई देती है। इस परिस्थिति के उसने बहुत से कारण बताए हैं,जिनमें मुख्य हैं- सोने-चांदी की अधिकांश मात्रा को स्त्रियों के आभूषण बनाने के लिए गला दिया जाना एवं बचाने के लिए धरती के नीचे गाड़ देना। इससे इतनी बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातु चलन से बाहर हो जाती है। वह लिखता है कि इतनी बड़ी मात्रा में सोने-चांदी के भारत में आने के बावजूद यह देश लाभान्वित नहीं हो पाता।

इन विषयों के अतिरिक्त भी बर्नियर ने अनेक पक्षों के बारे में महत्वपूर्ण वर्णन प्रस्तुत किए है। उसने जिन पक्षों पर अधिक कलम चलाई है उनमें मुख्य हैं- राजपूतों में शस्त्र-विद्या की परंपरा, घुड़सवारों की दक्षता एवं अमीर वर्ग की बनावट। उसके अनुसार अमीर वर्ग में बाहर से आए कई व्यक्ति सम्मिलित है। यह लोग रोजगार की तलाश में भारत आए थे एवं मुगल अमीर वर्ग का अंग बन गए। वह लिखता है कि अमीर वर्ग के इन सदस्यों को काफी बड़ी रकम वेतन के रूप में मिलती है और उस लेकिन उसके पश्चात भी वे ऋणग्रस्त रहते है। वे फिजूलखर्ची एवं शानो-शौकत पर अत्यधिक खर्च करते है, यही उनकी बर्बादी का अंत में कारण बनते हैं।

कश्मीर का शाल उद्योग:- बर्नियर ने कश्मीर के बारे में काफी महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन किया है। उसने यहां के शाल उद्योग का काफी रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। वह लिखता है कि शाल की बुनाई एक प्रकार की कशीदाकारी है। दो प्रकार की शालों के बारे में वह लिखता है- एक तो वे, स्पेन के ऊन से भी नरम होती हैं तथा दूसरी जो तिब्बती बकरियों के सीने की उन से तैयार की जाती है, जिन्हें तोंज कहा जाता है।

तोंज ऊन से निर्मित शाल रेशमी ऊन के शालों से अधिक कीमती होती है। ये कीमती शाल मात्र अमीर वर्ग के लिए बनाए जाते हैं। कश्मीर के अतिरिक्त पटना और लाहौर में इस प्रकार के शाल बनाए जाते है। लेकिन कश्मीर के शालों से इनकी कई कोई तुलना नहीं की जा सकती। बर्नियर ने इसके अतिरिक्त काश्तकारों एवं दस्तकारों की स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। बर्नियर ने विभिन्न अधिकारियों एवं सैनिको के वेतन पर प्रकाश डाला है। साथ ही वह लिखता है कि दिल्ली के आसपास का इलाका अत्यंत उपजाऊ है यहां- मक्का, चावल, बाजरा, नील, गन्ने की खेती होती है। बर्नियर ने आगरा व दिल्ली के बाजारों, अमीर वर्ग व गरीबों के घरों एवं इमारतों का भी विवरण प्रस्तुत किया है।

निष्कर्ष':- कुल मिलाकर इस फ्रांसीसी यात्री का वर्णन विविधता से भरा अत्यंत रोचक है। इससे भारत के बारे में उसकी गहन दृष्टि का पता चलता है। वह एक अच्छा पर्यवेक्षक एवं चरित्रों के मूल्यांकन का एक मनोवैज्ञानिक था। उसका यह वर्णन सर्वप्रथम “ट्रैवल्स इन द मुगल एंपायर” के शीर्षक से 1670 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसका यात्रा विवरण अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन उसे सावधानीपूर्वक उपयोग में लेने की जरूरत है।

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