देवीभागवत पुराण: चंडी पुराण

देवी भागवत पुराण, जिसे देवी भागवतम, भागवत पुराण, श्रीमद भागवतम और श्रीमद देवी भागवतम के नाम से भी जाना जाता है, देवी भगवती आदिशक्ति/दुर्गा जी को समर्पित एक संस्कृत पाठ है और हिंदू धर्म के अठारह प्रमुख महा पुराणों में से एक है जोकि महर्षि वेद व्यास जी द्वारा रचित है। इस पाठ को देवी उपासकों और शाक्त सम्प्रदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह महापुराण परम पवित्र वेद की प्रसिद्ध श्रुतियों के अर्थ से अनुमोदित, अखिल शास्त्रों के रहस्यका स्रोत तथा आगमों में अपना प्रसिद्ध स्थान रखता है। यह सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, वंशानुकीर्ति, मन्वन्तर आदि पाँचों लक्षणों से पूर्ण हैं। पराम्बा श्री जगदम्बा भगवती दुर्गा जी के पवित्र आख्यानों से युक्त इस पुराण में लगभग १८,००० श्लोक है।

देवीभागवत पुराण  

देवीभागवत पुराण, का आवरण पृष्ठ
लेखक वेदव्यास
देश भारत
भाषा संस्कृत
श्रृंखला पुराण
विषय देवी महात्यम्
प्रकार हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ
मीडिया प्रकार Prashant chaturvedi
पृष्ठ १८,००० श्लोक

एक बार भगवत्-अनुरागी तथा पुण्यात्मा महर्षियों ने श्री वेदव्यास के परम शिष्य सूतजी से प्रार्थना कि- हे ज्ञानसागर ! आपके श्रीमुख से विष्णु भगवान और शंकर के देवी चरित्र तथा अद्भुत लीलाएं सुनकर हम बहुत सुखी हुए। ईश्वर में आस्था बढ़ी और ज्ञान प्राप्त किया। अब कृपा कर मानव जाति को समस्त सुखों को उपलब्ध कराने वाले, आत्मिक शक्ति देने वाले तथा भोग और मोक्ष प्रदान कराने वाले पवित्रतम पुराण आख्यान सुनाकर अनुगृहीत कीजिए। ज्ञानेच्छु और विनम्र महात्माओं की निष्कपट अभिलाषा जानकर महामुनि सूतजी ने अनुग्रह स्वीकार किया। उन्होंने कहा-जन कल्याण की लालसा से आपने बड़ी सुंदर इच्छा प्रकट की। मैं आप लोगों को उसे सुनाता हूँ। यह सच है कि श्री मद् देवी भागवत् पुराण सभी शास्त्रों तथा धार्मिक ग्रंथों में महान है। इसके सामने बड़े-बड़े तीर्थ और व्रत नगण्य हैं। इस पुराण के सुनने से पाप सूखे वन की भांति जलकर नष्ट हो जाते हैं, जिससे मनुष्य को शोक, क्लेश, दु:ख आदि नहीं भोगने पड़ते। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सामने अंधकार छंट जाता है, उसी प्रकार भागवत् पुराण के श्रवण से मनुष्य के सभी कष्ट, व्याधियां और संकोच समाप्त हो जाते हैं। महात्माओं ने सूतजी से भागवत् पुराण के संबंध में ये जिज्ञासाएं रखीं:

  • पवित्र श्रीमद् देवी भागवत् पुराण का आविर्भाव कब हुआ ?
  • इसके पठन-पाठन का समय क्या है ?
  • इसके श्रवण-पठन से किन-किन कामनाओं की पूर्ति होती है ?
  • सर्वप्रथम इसका श्रवण किसने किया ?
  • इसके पारायण की विधि क्या है ?

आविर्भाव

महर्षि पराशर और देवी सत्यवती के संयोग से श्रीनारायण के अंशावतार देव व्यासजी का जन्म हुआ। व्यासजी ने अपने समय और समाज की स्थिति पहचानते हुए वेदों को चार भागों में विभक्त किया और अपने चार पटु शिष्यों को उनका बोध कराया। इसके पश्चात् वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित नर-नारियों का मंदबुद्धियों के कल्याण के लिए अट्ठारह पुराणों की रचना की, ताकि वे भी धर्म-पालन में समर्थ हो सकें। सूतजी ने कहा- महात्मन्! गुरुजी के आदेशानुसार सत्रह पुराणों के प्रसार एवं प्रचार का दायित्व मुझ पर आया, किंतु भोग और मोक्षदाता भागवत पुराण स्वयं गुरुजी ने जन्मेजय को सुनाया। आप जानते हैं-जन्मेजय के पिता राजा परीक्षित को तक्षक सर्प ने डस लिया था और राजा ने अपनी हत्या के कल्याण के लिए श्रीमद् भागवत् पुराण का श्रवण किया था। राजा ने नौ दिन निरंतर लोकमाता भगवती दुर्गा की पूजा-आराधना की तथा मुनि वेदव्यास के मुख से लोकमाता की महिमा से पूर्ण भागवत पुराण का श्रवण किया।

    देवी पुराण की महिमा
    देवी पुराण के पढ़ने एवं सुनने से भयंकर रोग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि भूत-प्रेत बाधा, कष्ट योग और दूसरे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आधिदैहिक कष्टों का निवारण हो जाता है। सूतजी ने इसके लिए एक कथा का उल्लेख करते हुए कहा-वसुदेव जी द्वारा देवी भागवत पुराण को पारायण का फल ही था कि प्रसेनजित को ढूंढ़ने गए श्रीकृष्ण संकट से मुक्त होकर सकुशल घर लौट आए थे। इस पुराण के श्रवण से दरिद्र धनी, रोगी-नीरोगी तथा पुत्रहीन स्त्री पुत्रवती हो जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चतुर्वर्णों के व्यक्तियों द्वारा समान रूप से पठनीय एवं श्रवण योग्य यह पुराण आयु, विद्या, बल, धन, यश तथा प्रतिष्ठा देने वाला अनुपम ग्रंथ है।
    पारायण का उपयुक्त समय
    सूतजी बोले-देवी भागवत की कथा-श्रवण से भक्तों और श्रद्धालु श्रोताओं को ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है। मात्र क्षणभरकी कथा-श्रवण से भी देवी के भक्तों को कभी कष्ट नहीं होता। सभी तीर्थों और व्रतों का फल देवी भागवत के एक बार के श्रवण मात्र से प्राप्त हो जाता है। सतयुग, त्रेता तथा द्वापर में तो मनुष्य के लिए अनेक धर्म-कर्म हैं, किंतु कलियुग में तो पुराण सुनने के अतिरिक्त कोई अन्य धार्मिक आचरण नहीं है। कलियुग के धर्म-कर्महीन तथा आचारहीन मनुष्यों के कल्याण के लिए ही श्री व्यासजी ने पुराण-अमृत की सृष्टि की थी। देवी पुराण के श्रवण के लिए यों तो सभी समय फलदायी है, किंतु फिर भी आश्विन, चैत्र, मार्गशीर्ष तथा आषाढ़ मासों एवं दोनों नवरात्रों में पुराण के श्रवण से विशेष पुण्य होता है। वास्तव में यह पुराण नवाह्र यज्ञ है, जो सभी पुण्य कर्मों से सर्वोपरि एवं निश्चित फलदायक है। इस नवाह्न यज्ञ से छली, मूर्ख, अमित्र, वेद-विमुख निंदक, चोर, व्यभिचारी, उठाईगीर, मिथ्याचारी, गो-देवता-ब्राह्मण निंदक तथा गुरुद्वेषी जैसे भयानक पापी शुद्ध और पापरहित हो जाते हैं। बड़े-बड़े व्रतों, तीर्थ-यात्राओं, बृहद् यज्ञों या तपों से भी वह पुण्य फल प्राप्त नहीं होता जो श्रीमद् देवी भागवत् पुराण के नवाह्र पारायण से प्राप्त होता है।
    तथा न गंगा न गया न काशी न नैमिषं न मथुरा न पुष्करम्।
    पुनाति सद्य: बदरीवनं नो यथा हि देवीमख एष विप्रा:।
    गंगा, गया, काशी, नैमिषारण्य, मथुरा, पुष्कर और बदरीवन आदि तीर्थों की यात्रा से भी वह फल प्राप्त नहीं होता, जो नवाह्र पारायण रूप देवी भागवत श्रवण यज्ञ से प्राप्त होता है। सूतजी के अनुसार-आश्विन् मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को स्वर्ण सिंहासन पर श्रीमद् भागवत की प्रतिष्ठा कराकर ब्राह्मण को देने वाला देवी के परम पद को प्राप्त कर लेता है। इस पुराण की महिमा इतनी महान है कि नियमपूर्वक एक-आध श्लोक का पारायण करने वाला भक्त भी मां भगवती की कृपा प्राप्त कर लेता है।

पौराणिक महत्त्व

देवीभागवत पुराण: आविर्भाव, पौराणिक महत्त्व, श्रवण विधि 
काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातँगी, कमला आदि देवियाँ

श्री कृष्ण प्रसेनजित को ढूंढ़ने के प्रयास में खो गए थे जो श्री देवी भगवती के आशीर्वाद से सकुशल लौट आए। यह वृत्तांत महर्षियों की इच्छा से विस्तार से सुनाते हुए श्री सूतजी कहने लगे-सज्जनों ! बहुत पहले द्वारका पुरी में भोजवंशी राजा सत्राजित रहता था। सूर्य की भक्ति-आराधना के बल पर उसने स्वमंतक नाम की अत्यंत चमकदार मणि प्राप्त की। मणि की क्रांति से राजा स्वयं सूर्य जैसा प्रभा-मंडित हो जाता था। इस भ्रम में जब यादवों ने श्रीकृष्ण से भगवान सूर्य के आगमन की बात कही, तब अंतर्यामी कृष्ण ने यादवों की शंका का निवारण करते हुए कहा कि आने वाले महानुभाव स्वमंतक मणिधारी राजा सत्राजित हैं, सूर्य नहीं। स्वमंतक मणि का गुण था कि उसको धारण करने वाला प्रतिदिन आठ किलो स्वर्ण प्राप्त करेगा। उस प्रदेश में किसी भी प्रकार की मानवीय या दैवीय विपत्ति का कोई चिह्न तक नहीं था। स्वमंतक मणि प्राप्त करने की इच्छा स्वयं कृष्ण ने भी की लेकिन सत्राजित ने अस्वीकार कर दिया।

एक बार सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को धारण करके घोड़े पर चढ़कर शिकार को गया तो एक सिंह ने उसे मार डाला। संयोग से जामवंत नामक रीछ ने सिंह को ही मार डाला और वह मणि को लेकर अपनी गुफा में आ गया। जामवंत की बेटी मणि को खिलौना समझकर खेलने लगी। प्रसेनजित के न लौटने पर द्वारका में यह अफवाह फैल गई कि कृष्ण को सत्राजित द्वारा मणि देने से इनकार करने पर दुर्भावनावश कृष्ण ने प्रसेनजित की हत्या करा दी और मणि पर अपना अधिकार कर लिया। कृष्ण इस अफवाह से दु:खी होकर प्रसेनजित को खोजने के लिए निकल पड़े। वन में कृष्ण और उनके साथियों ने प्रसेनजित के साथ एक सिंह को भी मरा पाया। उन्हें वहां रीछ के पैरों के निशानों के संकेत भी मिले, जो भीतर गुफा में प्रवेश के सूचक थे। इससे कृष्ण ने सिंह को मारने तथा मणि के रीछ के पास होने का अनुमान लगाया।

अपने साथियों को बाहर रहकर प्रतीक्षा करने के लिए कहकर स्वयं कृष्ण गुफा के भीतर प्रवेश कर गए। काफी समय बाद भी कृष्ण के वापस न आने पर निराश होकर लौटे साथी ने कृष्ण के भी मारे जाने का मिथ्या प्रचार कर दिया। कृष्ण के न लौटने पर उनके पिता वसुदेव पुत्र-शोक में व्यथित हो उठे। उसी समय महर्षि नारद आ गए। समाचार जानकर नारदजी ने वसुदेव से श्रीमद् देवी भागवत पुराण के श्रवण का उपदेश दिया। वसुदेव मां भगवती की कृपा से पूर्व परिचित थे। उन्होंने नारदजी से कहा-देवर्षि, देवकी के साथ कारागारवास करते हुए जब छ: पुत्र कंस के हाथों मारे जा चुके थे तो हम दोनों पति-पत्नी काफी व्यथित और अंसतुलित हो गए थे। तब अपने कुल पुरोहित महर्षि गर्ग से परामर्श किया और कष्ट से छुटकारा पाने का उपाय पूछा। गुरुदेव ने जगदम्बा मां की गाथा का पारायण करने को कहा। कारागार में होने के कारण मेरे लिए यह संभव नहीं था। अत: गुरुदेव से ही यह कार्य संपन्न कराने की प्रार्थना की।

वसुदेव ने कहा-मेरी प्रार्थना स्वीकार करके गुरुदेव ने विंध्याचल पर्वत पर जाकर ब्राह्मणों के साथ देवी की आराधना-अर्चना की। विधि-विधानपूर्वक देवी भागवत का नवाह्र यज्ञ किया। अनुष्ठान पूर्ण होने पर गुरुदेव ने मुझे इसकी सूचना देते हुए कहा-देवी ने प्रसन्न होकर यह आकाशवाणी की है-मेरी प्रेरणा से स्वयं विष्णु पृथ्वी के कष्ट निवारण हेतु वसुदेव देवकी के घर अवतार लेंगे। वसुदेव को चाहिए कि उस बालक को गोकुल ग्राम के नंद-यशोदा के घर पहुंचा दें और उसी समय उत्पन्न यशोदा की बालिका को लाकर आठवीं संतान के रूप में कंस को सौंप दें। कंस यथावत् बालिका को धरती पर पटक देगा। वह बालिका कंस के हाथ से तत्काल छूटकर दिव्य शरीर धारण कर, मेरे ही अंश रूप से लोक कल्याण के लिए विध्यांचल पर्वत पर वास करेगी। गर्ग मुनि के द्वारा इस अनुष्ठान फल को सुन कर मैंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आगे घटी घटनाएं मुनि के कथनानुसार पूरी कीं और कृष्ण की रक्षा की। यह विवरण सुनाकर वसुदेव नारदजी से कहने लगे-मुनिवर ! सौभाग्य से आपका आगमन मेरे लिए शुभ है। अत: आप ही मुझे देवी भागवत पुराण की कथा सुनाकर उपकृत करें।

वसुदेव के कहने पर नारद ने अनुग्रह करते हुए नवाह्र परायण किया। वसुदेव ने नवें दिन कथा समाप्ति पर नारदजी की पूजा-अर्चना की भगवती मां की माया से श्रीकृष्ण जब गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने एक बालिका को मणि से खेलते देखा। जैसे ही कृष्ण ने बालिका से मणि ली, तो बालिका रो उठी। बालिका के रोने की आवाज को सुनकर जामवंत वहां आ पहुंचा तथा कृष्ण से युद्ध करने लगा। दोनों में सत्ताईस दिन तक युद्ध चलता रहा। देवी की कृपा से जामवंत लगातार कमोजर पड़ता गया तथा श्रीकृष्ण शक्ति-संपन्न होते गए। अंत में उन्होंने जामवंत को पराजित कर दिया। भगवती की कृपा से जामवंत को पूर्व स्मृति हो आई। त्रेता में रावण का वध करने वाले राम को ही द्वापर में कृष्ण के रूप में अवतरित जानकर उनकी वंदना की। अज्ञान में किए अपराध के लिए क्षमा मांगी। मणि के साथ अपनी पुत्री जांबवती को भी प्रसन्नतापूर्वक कृष्ण को समर्पित कर दिया।

मथुरा में कथा के समाप्त होने के बाद वसुदेव ब्राह्मण भोज के बाद आशीर्वाद ले रहे थे, उसी समय कृष्ण मणि और जांबवती के साथ वहां पहुच गए। कृष्ण को वहां देखकर सभी की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। भगवती का आभार प्रकट करते हुए वसुदेव-देवकी ने श्रीकृष्ण का अश्रुपूरित नेत्रों से स्वागत किया। वसुदेव का सफल काम बनाकर नारद देवलोक वापस लौट गए।

श्रवण विधि

देवी भागवत पुराण के अनुसार आगत मुनियों को यह कथा सुनाते हुए सूतजी बोले-श्रद्वालु ऋषियों ! कथा श्रवण के लिए श्रद्धालु जनों को शुभ मुहूर्त निकलवाने के लिए किसी ज्योतिर्विद् से सलाह लेनी चाहिए या फिर नवरात्रों में ही यह कथा-श्रवण उपयुक्त है। इस अनुष्ठान की सूचना विवाह के समान ही अपने सभी बंधु-बांधवों, सगे-संबंधियों, परिचितों, ब्राह्मण, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों एवं स्त्रियों को भी आमंत्रित करना चाहिए। जो जितना अधिक समय श्रवण में दे सके, उतना अवश्य दे। सभी आगंतुकों का स्वागत सत्कार आयोजन का धर्म है। कथा-स्थल को गोबर से लीपकर एक मंडप और उसके ऊपर एक गुंबद के आकार का चंदोवा लटकाकर इसके ऊपर देवी चित्र युक्त ध्वजा फहरा देनी चाहिए। कथा सुनाने के लिए सदाचारी, कर्मकांडी, निर्लोभी कुशल उपदेशक को ही नियुक्त करना चाहिए। प्रात:काल स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर कलश की स्थापना करनी चाहिए। गणेश, नवग्रह, योगिनी, मातृका, क्षेत्रपाल, बटुक, तुलसी विष्णु तथा शंकर आदि की पूजा करके भगवती दुर्गा की आराधना करनी चाहिए। देवी की षोडशोपचार पूजा-अर्चना करके देवी भागवत ग्रंथ की पूजा करनी चाहिए तथा देवी यज्ञ निर्विघ्न समाप्त होने की अभ्यर्थना करनी चाहिए। प्रदक्षिणा और नमस्कार करते हुए देवी की स्तुति प्रारंभ करनी चाहिए। तत्पश्चात् ध्यानावस्थित होकर देवी कथा श्रवण करनी चाहिए। कथा के श्रवणकाल में श्रोता अथवा वक्ता को क्षौर कर्म नहीं करवाना चाहिए। भूमि पर शयन ब्रह्मचर्य का पालन सादा भोजन संयम शुद्ध आचरण सत्य भाषण, तथा अहिंसा का व्रत लेना चाहिए। तामस पदार्थ यथा-प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा आदि का भक्षण भी वर्जित है। स्त्री-प्रसंग का बलपूर्वक त्याग करना चाहिए। नवाह्न यज्ञ की समाप्ति पर नवें दिन अनुष्ठान का उद्यापन करना चाहिए। उस दिन वक्ता तथा भागवत पुराण दोनों की पूजा करनी चाहिए। ब्राह्मण तथा कुमारिकाओं को भोजन एवं दक्षिणा देकर तृप्त करना चाहिए। गायत्री मंत्र से होम करके स्वर्ण मंजूषा पर अधिष्ठित भागवत पुराण वक्ता ब्राह्मण को दान में देते हुए दक्षिणादि से संतुष्ट करते हुए उसे विदा करना चाहिए। पूर्वोक्त विधि-विधान से निष्काम भाव से पारायण करने वाला श्रोता श्रद्धालु मोक्षपद को और सकाम भाव से पारायण करने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त करता है। कथा-श्रवण के समय किसी भी प्रकार का वार्तालाप, ध्यानभग्नता, आसन बदलने, ऊंघने या अश्रद्धा से बड़ी भारी हानि हो सकती है अत: ऐसा नहीं करना चाहिए। सूतजी महाराज ने कहा-अठारह पुराणों में देवी भागवत् पुराण उसी प्रकार सर्वोत्तम है, जिस प्रकार नदियों में गंगा, देवों में शंकर, काव्यों में रामायण, प्रकाश स्रोतों में सूर्य, शीतलता और आह्लाद में चंद्रमा, क्षमाशीलों में पृथ्वी, गंभीरता में सागर और मंत्रों में गायत्री आदि श्रेष्ठ हैं। यह पुराण श्रवण सब प्रकार के कष्टों का निवारण करके आत्मकल्याण करता है। अत: इसका पारायण सभी के लिए श्रेष्ठ एवं वरेण्य है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कडियाँ

Tags:

देवीभागवत पुराण आविर्भावदेवीभागवत पुराण पौराणिक महत्त्वदेवीभागवत पुराण श्रवण विधिदेवीभागवत पुराण इन्हें भी देखेंदेवीभागवत पुराण बाहरी कडियाँदेवीभागवत पुराणआदिशक्तिदुर्गा

🔥 Trending searches on Wiki हिन्दी:

किशोर कुमारलालबहादुर शास्त्रीनवरोहणगुम है किसी के प्यार मेंखजुराहो स्मारक समूहसमावेशी शिक्षाजय श्री रामशाहरुख़ ख़ानयोनिभारत के घोटालों की सूची (वर्ष के अनुसार)द्वितीय विश्वयुद्धदीपावलीराम नवमीजवान (फ़िल्म)हर्षवर्धनमुल्लांपुर दाखाचम्पारण सत्याग्रहजयपुरवीर्यप्लासी का पहला युद्धमहाजनपदसहजनमहाद्वीपउत्तराखण्ड में लोकसभा क्षेत्रलोक प्रशासनसनम तेरी कसम (2016 फ़िल्म)शिक्षाचन्द्रमाभारत के राजनीतिक दलों की सूचीबिहार के मुख्यमंत्रियों की सूचीरामायणध्रुव राठीछत्तीसगढ़ के जिलेप्रदूषणपारिभाषिक शब्दावलीॐ नमः शिवायभारत में सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलनतुलसीदासआपातकाल (भारत)नमस्ते सदा वत्सलेभारत की भाषाएँप्रथम विश्व युद्धसम्भोगशारवरी वाघएशियासपना चौधरीतेरी बातों में ऐसा उलझा जियासमाजशास्त्रविश्व के सभी देशमुम्बईविशेषणभारत के गवर्नर जनरलों की सूचीभारत रत्‍नआदर्श चुनाव आचार संहिताविटामिनपलक तिवारीझारखण्डनागालैण्ड लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रबिहार जाति आधारित गणना 2023राजनाथ सिंहफ़्रान्सीसी क्रान्तिशिवम दुबेआदमसंस्कृतिदैनिक जागरणअधिगमभारत में आरक्षणसालासर बालाजीपृथ्वी का इतिहासऔरंगज़ेबदेवनागरीअग्रसेन की बावलीसहारनपुर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रP (अक्षर)हिन्दू धर्मग्रन्थसंस्कृत साहित्यदिल्ली सल्तनतखेल🡆 More