बंगाल के जंगल महल (अब कुछ भाग पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में) के आदिवासी जमीनदारों, सरदारों, पाइकों और किसानों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जल, जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1766 में जो आन्दोलन आरम्भ किया, उसे 'चुआड़ विद्रोह' कहते हैं। यह आन्दोलन 1834 तक चला, यह विद्रोह मुख्यतः अंग्रेज़ों द्वारा जमींदारों की जमींदारी और पाइको की भूमि छीनने की विरोध में हुआ था। इसका नेतृत्व जगन्नाथ पातर, दुर्जन सिंह, गंगा नारायण सिंह, रघुनाथ सिंह, सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह, रानी शिरोमणि, लक्ष्मण सिंह, बैजनाथ सिंह, लाल सिंह, रघुनाथ महतो एवं अन्य जमींदारों ने अलग-अलग समय काल में किया। इतिहासकारों ने इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह और पाइक विद्रोह के नाम से भी लिखा है। चुआड़ शब्द को नकारात्मक मानते हुए राजनीतिक दलों द्वारा इस विद्रोह को जंगल महल आंदोलन के नाम से पुकारे जाने का प्रस्ताव भी किया गया था।
1832-33 में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया भूमिज विद्रोह को चुआड़ विद्रोह की ही हिस्सा मानी जाती है। जिसे अंग्रेजों ने 'गंगा नारायण का हंगामा' कहा है, जबकि कई इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह के नाम से दर्ज किया है।
चुआड़ अथवा चुहाड़ का शाब्दिक अर्थ लुटेरा अथवा उत्पाती होता है। ब्रिटिश शासन काल में जंगल महल क्षेत्र के भूमिजों को चुआड़ (नीची जाति के लोग) कहा जाता था, उनका मुख्य पेशा पशु-पक्षियों का शिकार और जंगलों में खेती था लेकिन बाद में कुछ भूमिज जमींदार बन गए और कुछ सरदार घटवाल और पाईक (सिपाही) के रूप में कार्यरत थे। जब 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल जिला में सर्वप्रथम मालगुजारी वसूलना शुरू किया गया, तब अंग्रेजों के इस षडयंत्रकारी तरीके से जल, जंगल, जमीन हड़पने की गतिविधियों का सन् 1766 ई. में भूमिज जनजाति के लोगों द्वारा सबसे पहला विरोध किया गया और ब्रिटिश शासकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया। जब अंग्रेजों ने पूछा, ये लोग कौन हैं, तो उनके पिट्ठू जमींदारों ने घृणा और अवमानना की दृष्टि से उन्हें 'चुआड़' (बंगाली में अर्थ - असभ्य या दुष्ट) कहकर संबोधित किया, तत्पश्चात उस विद्रोह का नाम 'चुआड़ विद्रोह' पड़ा। भूमिजों के साथ-साथ इस विद्रोह में जंगल महल के बाउरी, कुड़मि महतो और मुंडा समुदायों ने भी अपना समर्थन दिया था।
कई इतिहासकारों और मानव वैज्ञानिकों जैसे एडवर्ड टुइट डाल्टन, विलियम विलसन हन्टर, हर्बट होप रिस्ली, जे.सी. प्राइस, जगदीश चन्द्र झा, शरत चन्द्र राय, बिमला शरण, सुरजीत सिन्हा आदि ने भूमिज को ही चुआड़ कहा है।
इलाहाबाद की संधि (1765) में दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंप दी। जंगल महाल के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र मराठा आक्रमण के बाद से ही काफ़ी ढीले-ढाले तरीके से शासित था और स्थानीय जमींदार, जिन्हें राजा कहा जाता था, कर वसूल कर वर्ष में एक बार केन्द्रीय सत्ता को भेजते थे। कम्पनी द्वारा दीवानी अधिकार प्राप्त करने के बाद स्थानीय जमींदारों बेदखल कर नए जमींदारों को नियुक्त किया, जिनमे से कुछ ने अंग्रेज़ों की अधीनता स्वीकार ली तथा कुछ ने उनका विद्रोह किया। सर्वप्रथम विद्रोह करने वालों में धालभूम और बड़ाभूम परगना की जमींदार और सरदार थे। जंगल महल में अपनी पकड़ बनाने की बाद से ही इसकी नीति अधिकतम संभव कर वसूली की रही। इस उद्देश्य में स्थानीय व्यवस्था को बाधक मानकर नयी प्रणालियाँ और नियामक (रेगुलेशन) लगाये जाने शुरू हुए और 1765 के बाद एक बिलकुल नए किस्म के कर युग का आरंभ हुआ जिससे स्थानीय व्यवस्था, स्थानीय लोग और जमींदार भी बर्बाद होने लगे।
इस प्रकार स्थानीय चुआड़ (या भूमिज), जो पाईक थे, उन लोगों की जमीनों पर से उनके प्राकृतिक अधिकार समाप्त किये जाने से उनमें असंतोष व्याप्त था और जब उन्होंने विद्रोह किया तो उन्हें बेदखल किये गए जमींदारों का नेतृत्व भी प्राप्त हो गया।
साल 1766 में जंगल महल के धलभूम और बड़ाभूम में इस विद्रोह का आरंभ हुआ, जो बाद में कुईलापाल, पातकुम, झालदा, पंचेत, बाघमुंडी, रायपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुष्मा, काशीपुर, मानभूम, मिदनापुर, बांकुड़ा और अंबिकानगर तक फैला। 1768 में धालभूम में दामपाड़ा के जगन्नाथ सिंह पातर ने सर्वप्रथम भूमिजों के साथ विद्रोह किया। दिसंबर 1769 में 5000 भूमिजों ने सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह और जगन्नाथ पातर के नेतृत्व में धलभूम और बड़ाभूम में एक बड़ा विद्रोह किया। 1770 में फिर सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह और बड़ाभूम के युवराज लक्ष्मण सिंह ने विद्रोह किया, लेकिन 1778 में इस विद्रोह को दबा दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने सुबल सिंह को पकड़कर फांसी देने का विशेष रूप से आदेश दिया और जनवरी 1770 को सुबल सिंह को पकड़कर फांसी दिया गया। चुआड़ लोगों ने मानभूम, रायपुर और पंचेत के आस-पास के क्षेत्रों में इस विद्रोह को तेज़ कर दिया था। 1774 में धलभूम के राजा जगन्नाथ धल के नेतृत्व में चुआड़ों ने बहरागोड़ा और नरसिंहगढ़ के सभी तथा हल्दीपोखर के दो गांवों को आग के हवाले कर दिया। 1782-84 में मंगल सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इस विद्रोह का नेतृत्व किया। 1787 से 1793 तक पूरे छोटानागपुर में अशांति का माहौल था। 1792 में चुआड़ विद्रोह पातकुम और बामनघाटी तक फैला। 1793 में भू-राजस्व का स्थायी बंदोबस्त के बाद बड़ाभूम परगना में लक्ष्मण सिंह ने एक बार बार फिर विद्रोह किया, उन्होंने 500 चुआड़ों के साथ पूरे क्षेत्र में हंगामा किया। 1798-99 में दुर्जन सिंह, लाल सिंह और मोहन सिंह के नेतृत्व में चुआड़ विद्रोह अपने चरम पर था, लेकिन ब्रिटिश कंपनी की सेना ने उसे कुचल दिया। जगन्नाथ पातर के पुत्र बैजनाथ सिंह ने 1798-1810 में इस विद्रोह का नेतृत्व किया। 1800 में माधव सिंह ने बड़ाभूम के भूमिजों (चुआड़ों) का समर्थन प्राप्त कर लिया, तथा 4000 भूमिजों के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया। 1810 में, बैजनाथ सिंह के हिंसक विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सेना को बुलाया गया था।
साल 1799 के आरंभ में मिदनापुर के आसपास के तीन स्थानों पर चुआड़ लोग संगठित हुए: बहादुरपुर, सालबनी और कर्णगढ़। यहाँ से उन्होंने गोरिल्ला हमले शुरू किये। इनमे से कर्णगढ़ में रानी शिरोमणि का आवास था। तत्कालीन कलेक्टर के लिखे पत्र के अनुसार, चुआड़ विद्रोह बढ़ता गया और फ़रवरी 1799 तक मिदनापुर के आसपास के कई गाँवो के सतत् विस्तृत इलाके पर इनका कब्ज़ा हो गया। मार्च में, रानी शिरोमणि ने अपने किले में चुआड़ों को शरण दी, जहां से चुआड़ अंग्रेजी कंपनी पर हमला करते थे। हमलों और लूट का यह क्रम दिसम्बर 1799 तक चलता रहा। बाद में, जगन्नाथ सिंह के पोते रघुनाथ सिंह ने 1833 तक विद्रोह का नेतृत्व किया। जमींदारों, सरदार घाटवालों, पाइको और किसानों का यह विद्रोह 1766 से 1832 तक रुक-रुक कर पूरे जंगल महल और आसपास के इलाकों में जारी रहा।
1832-33 में, गंगा नारायण सिंह ने सभी भूमिजों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया, जिसे अंग्रेजों ने 'गंगा नारायण का हंगामा' कहा। जबकि कई इतिहासकारों ने इसे चुआड़ विद्रोह या भूमिज विद्रोह के नाम से लिखा।
जगन्नाथ सिंह पातर, दुर्जन सिंह, गंगा नारायण सिंह, सुबल सिंह, श्याम गुंजम सिंह, जगन्नाथ धल, लक्ष्मण सिंह (बड़ाभूम), रानी शिरोमणि, माधव सिंह, बैद्यनाथ सिंह, रघुनाथ सिंह, रघुनाथ महतो, मंगल सिंह, लाल सिंह, राजा मोहन सिंह, राजा मधु सिंह, लक्ष्मण सिंह (दलमा), सुंदर नारायण सिंह, फतेह सिंह, मनोहर सिंह, अचल सिंह और अन्य जमींदारों ने भूमिज, मुंडा, कोल आदिवासियों के साथ अलग-अलग समय काल में इस विद्रोह का नेतृत्व किया।
झारखण्ड स्टूडेंट फेडरेशन द्वारा प्रकाशित एक पैम्फलेट में चुआड़ शब्द को नकारात्मक माना गया और इस विद्रोह को "जंगल महल स्वतंत्रता आन्दोलन" के नाम से पुकारे जाने का प्रस्ताव भी किया।
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