चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज्यकाल ३७५ ई से ४१४ ई) भारत के गुप्त वंश के महानतम एवं सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट थे। गुप्त साम्राज्य के राज्यकाल में गुप्त राजवंश अपने चरम उत्कर्ष पर था। यह समय भारत का स्वर्णिम युग भी कहा जाता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय , समुद्रगुप्त महान के पुत्र थे। उन्होंने आक्रामक विस्तार की नीति एवं लाभदयक पारिग्रहण नीति का अनुसरण करके सफलता प्राप्त की।
चन्द्रगुप्त द्वितीय | |
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विक्रमादित्य, भट्टारक, महाराजाधिराज | |
गुप्त सम्राट | |
शासनावधि | ल. 375 |
पूर्ववर्ती | समुद्रगुप्त, या रामगुप्त (सम्भवतः) |
उत्तरवर्ती | कुमारगुप्त प्रथम |
जीवनसंगी | ध्रुवदेवी, कुबेरनाग |
संतान | |
पिता | समुद्रगुप्त |
माता | दत्त-देवी |
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने गुप्त सम्वत का प्रारम्भ किया। साँची अभिलेख में उसे 'देवराज' और 'प्रवरसेन' कहा गया है। विक्रमादित्य ने अपनी दूसरी राजधानी उज्जयिनी को बनाया। चन्द्रगुप्त ने विदानो को संरक्षण दिया, उसके दरबार में नवरत्न निवास किया करते थे जिनमें कालिदास, वराहमिहिर, धन्वन्तरि प्रमुख थे। उसने शक्तिशाली राजवंशों से वैवहिक सम्बन्ध स्थापित किए। उनके ही राज्यकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान भारत आया था। उसके शासनकाल में कला, साहित्य, स्थापत्य का अभूतपूर्व विकास हुआ, इसलिए चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल को गुप्त साम्राज्य का स्वर्णयुग कहा जाता है। संभवतः भारत सोने की चिड़िया इसी कालखंड में कहा जाता था ।
चंद्रगुप्त द्वितीय की तिथि का निर्धारण उनके अभिलेखों आदि के आधार पर किया जाता है। चंद्रगुप्त का, गुप्तसंवत् 61 (380 ई.) में उत्कीर्ण मथुरा स्तम्भलेख, उनके राज्य के पाँचवें वर्ष में लिखाया गया था। फलतः उनका राज्यारोहण गुप्तसंवत् 61 - 5= 56 (= 375 ई.) में हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय की अंतिम ज्ञात तिथि उनकी रजतमुद्राओं पर प्राप्त हाती है- गुप्तसंवत् 90 + 0 = 409 - 410 ई.। इससे अनुमान कर सकते हैं कि चंद्रगुप्त संभवतः उपरिलिखित वर्ष तक शासन कर रहे थे। इसके विपरीत कुमारगुप्त प्रथम की प्रथम ज्ञात तिथि गुप्तसंवत् 96= 415 ई., उनके बिलसँड़ अभिलेख से प्राप्त होती है। इस आधर पर, ऐसा अनुमान किया जाता है कि, चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल का समापन 413-14 ई. में हुआ होगा।
चंद्रगुप्त द्वितीय के विभिन्न लेखों से ज्ञात देवगुप्त एवं देवराज-अन्य नाम प्रतीत होते हैं। अभिलेखों एवं मुद्रालेखों से उनकी विभिन्न उपाधियों- महाराजाधिराज, परमभागवत, श्रीविक्रम, नरेन्द्रचन्द्र, नरेंद्रसिंह, विक्रमांक एव विक्रमादित्य आदि- का ज्ञान होता है।
उनका सर्वप्रथम सैनिक अभियान सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों के विरुद्ध हुआ। संघर्ष प्रक्रिया एवं अन्य संबद्ध विषयों का विस्तृत ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। चंद्रगुप्त के सांधिविग्रहिक वीरसेन शाब के उदयगिरि (भिलसा के समीप) गुहालेख से, उनका समस्त पृथ्वी जतीने के उद्देश्य से वहाँ तक आना स्पष्ट है। इसी स्थान से प्राप्त चंद्रगुप्त के सामंत शासक सनकानीक महाराज के गुप्तसंवत् 82 (= 401-2 ई.) के लेख तथा आम्रकार्दव नाम के सैन्याधिकारी के साँची गुप्तसंवत् 93 (= 412-13 ई.) के शिलालेख से मालव प्रदेश में उनकी दीर्घ-उपस्थिति प्रत्यक्ष होती है। संभवत: चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक रुद्रसिंह तृतीय के विरुद्ध युद्धसंचालन तथा विजयोपरांत सौराष्ट्र के शासन को यहीं से व्यवस्थित किया हो। चंद्रगुप्त की शकविजय का अनुमान उनकी रजतमुद्राओं से भी होता है। सौराष्ट्र की शकमुद्रा परंपरा के अनुकरण में प्रचलित इन मुद्राओं से भी होता है। सौराष्ट्र की शकमुद्रा परम्परा के अनुकरण में प्रचलित इन मुद्राओं पर चंद्रगुप्त द्वितीय का चित्र, नाम, विरुद एवं मुद्राप्रचलन की तिथि लिखित है। शक मुद्राओं से ज्ञात अंतिम तिथि 388 ई. प्रतीत होती है। इसके विपरीत इन सिक्कों से ज्ञात चंद्रगुप्त की प्रथम तिथि गुप्तसंवत् 90+ 0 है। फलतः अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त की सैराष्ट्रविजय प्रायः 20 वर्षों के सुदीर्घ युद्ध के पश्चात् 409 ई. के बाद ही कभी पूर्णरूपेण सफल हुई होगी।
चंद्रगुप्त के सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव, अपने सांची अभिलेख में स्वयं को, अनेक समरावाप्तविजययशसूपताकः कहते हैं। इन अनेक समरों के उल्लेख से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त ने शकयुद्ध के अतिरिक्त अन्य युद्ध भी किए होंगे। किंतु वर्तमान स्थिति में उनका विवेचन अप्रमाणित है। दिल्ली में कुतुबमीनार के पार्श्व में स्थित लौहस्तंभ पर किन्हीं (सम्राट्) चंद्र की विजयप्रशस्ति उत्कीर्ण है। चंद्र की पहचान प्राचीन भारत के विभिन्न सम्राटों से की जाती रही है (देखिए चंद्र)। किंतु प्राय: विद्वान् उनकी पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। यदि इस सिद्धांत को सही माना जाय तो कहना न होगा कि द्वितीय चंद्रगुप्त ने वंग प्रदेश में संगठित रूप से आए हुए शत्रुओं को पराजित किया एवं (युद्ध द्वारा) सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीकों को जीता। वंग को पहचान साधारणतया पूर्वी बंगाल (प्राचीन सम्राट) तथा बाह्लीक की बल्ख (वैक्ट्रिया) से की जाती हैं, यद्यपि कुछ आश्चर्य नहीं जो वाह्लीकों की निवास पश्चिमी पाकिस्तान में ही कहीं रहा हो। सम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय के साथ चंद्र के अभिज्ञान को मानने में कठिनाइयाँ भी हैं। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपना राज्य पिता द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, किंतु लौहस्तंभ के चंद्र ने अपने स्वभुजार्जित विस्तृत साम्राज्य का उल्लेख किया है।
चद्रगुप्त का साम्राज्य सुविस्तृत था। इसमें पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर में संभवतः बल्ख तथा उत्तर-पश्चिम में अरब सागर तक के समस्त प्रदेश सम्मिलित थे। इस विस्तृत साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने की दृष्टि से चंद्रगुप्त ने अनेक शक्तिशाली एवं ऐश्वर्योन्मुखी राजपरिवारों से विवाहसंबंध स्थापित किए। स्वयं उनकी द्वितीय रानी कुबेरनागा 'नागकुलसंभूता' थी। कुबेरनागा से उत्पन्न प्रभावतीगुप्त वाकाटकनरेश रुद्रसेन द्वितीय को ब्याहीं थी। नागों एवं वाकाटकों की भौगोलिक स्थिति से सिद्ध है कि उनसे गुप्तसाम्राज्य को पर्याप्त बल एवं सहायता मिली होगी। कुंतल प्रदेश के कदंब नरेश शांतिवर्मन के तालगुंड अभिलेख से विदित है कि राजा काकुस्थ (त्स्थ) वर्मन की पुत्रियाँ गुप्त एवं अन्य राजाओं को ब्याहीं थीं। कुमारी का विवाह चंद्रगुप्त द्वितीय या उनके किसी पुत्र से हुआ होगा।
साम्राज्य को शासन की सुविधा के लिये विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था। सम्राट् स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। उसकी सहायता के लिये मंत्रिपरिषद् होती थी। राजा के बाद दूसरा उच्च अधिकारी युवराज होता था। मंत्री मंत्रिपरिषद् का मुख्य अधिकारी एवं अध्यक्ष था। चंद्रगुप्त द्वितीय के मंत्री शिखरस्वामी थे। इन्हें करमदांड अभिलेख में कुमारामात्य भी कहा है। इस संबंध में यह ज्ञातव्य है कि गुप्तकाल में युवराजों के साहाय्य के लिये स्वतंत्र परिषद् हुआ करती थी। वीरसेन शाब को 'अन्वयप्राप्तसचिव' कहा है। ये चंद्रगुप्त के सांधिविग्रहिक थे। किन्तु सेनाध्यक्ष संभवत: आम्रकार्दव थे। चंद्रगुप्त के समय के शासकीय विभागों के अध्यक्षों में (1) कुमारामात्याधिकरण (2) बलाधिकरण (3) रणभांडाधिकरण (4) दंडपाशाधिकरण (5) विनयशूर (6) महाप्रतीहार (7) तलवर (?) (8) महादंडनायक (9) विनयस्थितिस्थापक (10) भटाश्वपति और (11) उपरिक आदि मुख्य हैं।
शासन की सबसे बड़ी इकाई प्रांत था। प्रांतों के मुख्य अधिकारी उपरिक कहे जाते थे। तीरभुक्ति-उपरिक-अधिकरण के राज्यपाल महाराज गोविंदगुप्त थे। उनकी राजधानी वैशाली थी। शासन की प्रांतीय इकाई देश या भुक्ति कहलाती थी। प्रांतों का विभाजन अनेक प्रदेशों या विषयों में हुआ था। वैशाली के सर्वोच्च शासकीय अधिकारी का विभाग वैशाली-अधिष्ठान-अधिकरण कहलाता था। नगरां एवं ग्रामों के शासन के लिय अलग परिषद् होती थी। ग्रामशासन के लिये ग्रामिक, महत्तर एवं भोजक उत्तरदायी होते थे।
चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र थी। किंतु परवर्ती कुंतलनरेशों के अभिलेखों में उसे पाटलिपुरवराधीश्वर एवं उज्जयिनीपुरवराधीश्वर दोनों कहा है। बहुत संभव है, कि शक रुद्रसिंह की पराजय के बाद चंद्रगुप्त ने हपने राज्य की दूसरी राजधानी उज्जयिनी बनाई हो। साहित्यग्रंथों में विक्रमादित्य को भी इन दोनों ही नगरों से संबद्ध किया गया है। उज्जयिनी विजय के बाद ही कभी मालव संवत् विक्रमादित्य के नाम से संबद्ध होकर ' विक्रम संवत्' नाम से अभिहित होने लगा होगा। यों यह संवत् 58 ई.पू. से ही आरम्भ हो गया प्रतीत होता है
चंद्रगुप्त के राज्यकाल में चीनी यात्री फाह्यान ने भारत का भ्रमण किया। फाह्यान (400-411 ई.) ने तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति तथा व्यवस्था का अत्यंत सजीव उल्लेख किया है। मध्यदेश का वर्णन करते हुए फाह्यान ने लिखा है कि लोग राजा की भूमि जोतते हैं और लगान के रूप में उपज का कुछ अंश राजा को देते हैं। और जब चाहते हैं तब उसकी भूमि को छोड़ देते हैं और जहाँ मन में आता है जाकर रहते हैं। राजा न प्राणदंड देता है और न शारीरिक दंड। अपराध की गुरुता या लघुता की दृष्टि में रखते हुए अर्थदंड दिया जाता है। बार बार राजद्रोह करनेवाले अपराधियों का दाहिना हाथ काट लिया जाता है। राज्याधिकारियों को नियत वेतन मिलता है। नीच चांडालों के अतिरिक्त न तो कोई जीवहिंसा करता है, न मदिरापान करता और न लहसुन-प्याज खाता है। पाटलिपुत्र में फाह्यान ने अशोक के समय के भव्य प्रासाद देखे। वे अत्यन्त सुन्दर थे और ऐसा लगता था जैसे मानवनिर्मित न हों। पाटलिपुत्र मध्यदेश का सबसे बड़ा नगर था। लोग धनी और उदार थे। अच्छे धार्मिक कार्य करने में एक दूसरे से स्पर्धा करते थे। देश में चोर डाकुओं का कोई भय नहीं था।
चंद्रगुप्त के काल की आर्थिक संपन्नता उसकी प्रचुर स्वर्णमुद्राओं से पुष्ट होती है। इसके अतिरिक्त उसने रजत एवं ताम्र मुद्राओं का प्रचलन भी किया। रजत एवं ताम्र मुद्राओं का प्रचलन संभवत: स्थानीय था, किंतु उसकी स्वर्णमुद्राएँ सार्वभौम प्रचनल के लिये थीं।
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