आनन्द मठ बांग्ला भाषा का एक उपन्यास है जिसकी रचना बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने सन् 1882 में की थी। इस कृति का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और स्वतन्त्रता के क्रान्तिकारियों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। भारत का राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् इसी उपन्यास से लिया गया है। छपते ही यह पुस्तक अपने कथानक के चलते पहले बंगाल और कालान्तर में समूचे भारतीय साहित्य व समाज पर छा गई।
आनन्दमठ | |
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लेखक | बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय |
मूल शीर्षक | আনন্দ মঠ |
देश | भारत |
भाषा | बांग्ला भाषा |
प्रकार | राष्ट्रवादी उपन्यास |
प्रकाशक | रामानुजन विश्वविद्यालय प्रेस, भारत |
प्रकाशन तिथि | 1882 |
अंग्रेजी में प्रकाशित हुई | 2005, 1941, 1906 |
मीडिया प्रकार | Print (Paperback) |
पृष्ठ | 336 pp |
आनन्दमठ राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में 1773 के सन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। अंग्रेजों ने इस ग्रन्थ पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद १९४७ में इससे प्रतिबन्ध हटाया गया। 'आनंदमठ' के तब से अब तक न जाने कितनी भाषाओं में कितने संस्करण छप चुके हैं। चूंकि यह उपन्यास कॉपीराइट से मुक्त हो चुका है, इसलिए लगभग हर बड़े प्रकाशक ने इसे छापा है।
उपन्यास की कथा सन् १७७० के बंगाल के भीषण अकाल तथा सन्यासी विद्रोह पर आधारित है। इसमें वर्ष 1770 से 1774 तक के बंगाल का चित्र खींचा गया है। कथानक की दृष्टि से यह उपन्यास या ऐतिहासिक उपन्यास से बढ़कर है। महर्षि बंकिम ने अप्रशिक्षित किन्तु अनुशासित संन्यासी सैनिकों की कल्पना की है जो अनुभवी ब्रिटिश सैनिकों से संघर्ष करते हैं और उन्हें पराजित करते हैं।
आनंदमठ के प्रथम खण्ड में कथा बंगाल के दुर्भिक्ष काल से प्रारम्भ होती है जब लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे थे। सब गाँव छोड़कर यहाँ-वहाँ भाग रहे थे - एक तो खाने के लाले थे दूसरे किसान के पास खेती में अन्न उत्पन्न न होने पर भी अंग्रेजों द्वारा लगान का दबाव उन्हें पीड़ित कर रहा था।
कथा पदचिन्ह गाँव की है। महेन्द्र और कल्याणी अपने अबोध शिशु को लेकर गाँव से दूर जाना चाहते हैं। यहाँ लूट-पाट-डकैती आदि की घटनाएँ हैं। डकैतों ने कल्याणी को पकड़ लिया था पर वह जान बचाती दूर जंगल में भटक जाती है। महेन्द्र को सिपाही पकड़ लेते हैं - जहाँ हाथापाई होती है और भवानन्द नामक संन्यासी उसकी रक्षा करता है। भवानन्द आत्मरक्षा में अंग्रेज साहब को मार देता है - लूट का सामान व्यवस्था में लगाता है। वहाँ दूसरा संन्यासी जीवानन्द पहुँचता है। भवानन्द और जीवानन्द दोनों सन्यासी, प्रधान सत्यानन्द के शिष्य हैं - जो ’आनन्दमठ‘ में रहकर देश सेवा के लिए कर्म करते हैं। महेन्द्र भवानन्द का परिचय जानना चाहता है, क्योंकि यदि भवानन्द न मिलता तो उसकी जान जा सकती थी। भवानन्द ने जवाब दिया- मेरा परिचय जानकर क्या करोगे? महेन्द्र ने कहा - मैं जानना चाहता हूँ, आज आपने मेरा बहुत उपकार किया है। महेन्द्र समझ नहीं पाता कि संन्यासी डकैतों की तरह भी हो सकता है। इतने पर भी भवानन्द महेन्द्र की पत्नी और पुत्री से मिलाने का भी आश्वासन देता है। भवानन्द की मुद्रा सहसा बदल गयी थी। वह अब धीर स्थिर प्रकृति का संन्यासी नहीं लग रहा था। उसके चेहरे पर मुस्कराहट तैर रही थी। मौन भंग करने के लिए वह व्यग्र हो रहा था, परन्तु महेन्द्र गंभीर था। तब भवानन्द ने गीत गाना शुरू किया-
महेन्द्र - कल्याणी का पति
सत्यानन्द -
भावानन्द -
जीवानन्द -
नवीनानन्द उपाख्य शान्ति
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