वन्दे उत्कल जननी

वन्दे उत्कळ जननी (ओड़िआ: ବନ୍ଦେ ଉତ୍କଳ ଜନନୀ) कांतकबि लक्ष्मीकान्त महापात्र द्वारा लिखित एक ओड़िआ देशभक्ति कविता है। ओड़िशा १ अप्रैल १९३६ में स्वतंत्र होने के बाद, इस कविता को ओड़िशा का राज्य गान बनाया गया था।

कविता मे उत्कल को आत्मविश्वास और शक्ति को बजाय रखने और असुरक्षा और भय की स्थिति से अपने आत्म-सम्मान और गरिमा को बनाए रखने कि एक परिकल्पना की गई है। इस कविता से ओड़िशा में अलग प्रांत के लिए आंदोलन में तेजी आई है। उत्कल सम्मिलनी इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था।उत्कल जननी (माँ उत्कल की जय) एक देशभक्ति मकसद के कारण लिखा गया था।

कविता

ओड़िआ देवनागरी अर्थ
    ବନ୍ଦେ ଉତ୍କଳ ଜନନୀ,
    ଚାରୁ ହାସମୟୀ ଚାରୁ ଭାଷମୟୀ,
    ଜନନୀ, ଜନନୀ, ଜନନୀ॥
    ପୂତ-ପୟୋଧି-ବିଧୌତ-ଶରୀରା,
    ତାଳତମାଳ-ସୁଶୋଭିତ-ତୀରା,
    ଶୁଭ୍ର ତଟିନୀକୂଳ-ଶୀକର-ସମୀରା,
    ଜନନୀ, ଜନନୀ, ଜନନୀ॥
    ଘନ ଘନ ବନଭୂମି ରାଜିତ ଅଙ୍ଗେ,
    ନୀଳ ଭୂଧରମାଳା ସାଜେ ତରଙ୍ଗେ,
    କଳ କଳ ମୁଖରିତ ଚାରୁ ବିହଙ୍ଗେ,
    ଜନନୀ, ଜନନୀ, ଜନନୀ॥
    ସୁନ୍ଦର ଶାଳୀ-ସୁଶୋଭିତ-କ୍ଷେତ୍ରା,
    ଜ୍ଞାନବିଜ୍ଞାନ-ପ୍ରଦର୍ଶିତ-ନେତ୍ରା,
    ଯୋଗୀଋଷିଗଣ-ଊଟଜ-ପବିତ୍ରା,
    ଜନନୀ, ଜନନୀ, ଜନନୀ॥
    ସୁନ୍ଦର ମନ୍ଦିର ମଣ୍ଡିତ-ଦେଶା,
    ଚାରୁକଳାବଳୀ-ଶୋଭିତ-ବେଶା,
    ପୁଣ୍ୟ ତୀର୍ଥାଚୟ-ପୂର୍ଣ୍ଣ-ପ୍ରଦେଶା,
    ଜନନୀ, ଜନନୀ, ଜନନୀ॥
    ଉତ୍କଳ ଶୂରବର-ଦର୍ପିତ-ଗେହା,
    ଅରିକୁଳ-ଶୋଣିତ-ଚର୍ଚ୍ଚିତ-ଦେହା,
    ବିଶ୍ବଭୂମଣ୍ଡଳ-କୃତବର-ସ୍ନେହା,
    ଜନନୀ, ଜନନୀ, ଜନନୀ॥
    କବିକୁଳମୌଳି ସୁନନ୍ଦନ-ବନ୍ଦ୍ୟା,
    ଭୁବନ ବିଘୋଷିତ-କୀର୍ତ୍ତି ଅନିନ୍ଦ୍ୟା,
    ଧନ୍ୟେ, ପୁଣ୍ୟେ, ଚିରଶରଣ୍ୟେ,
    ଜନନୀ, ଜନନୀ, ଜନନୀ॥
बन्दे उत्कळ जननी,
    चारु हासमयी चारु भाषमयी,
    जननी, जननी, जननी॥
    पूत-पयोधि-बिधौत-शरीरा,
    ताळतमाळ-सुशोभित-तीरा,
    शुभ्र तटिनीकूळ-शीकर-समीरा,
    जननी, जननी, जननी॥
    घन घन बनभूमि राजित अंगे,
    नीळ भूधरमाळा साजे तरंगे,
    कळ कळ मुखरित चारु बिहंगे,
    जननी, जननी, जननी॥
    सुन्दर शाळी-सुशोभित-क्षेत्रा,
    ज्ञानबिज्ञान-प्रदर्शित-नेत्रा,
    योगीऋषिगण-ऊटज-पबित्रा,
    जननी, जननी, जननी॥
    सुन्दर मन्दिर मण्डित-देशा,
    चारुकळाबळी-शोभित-बेशा,
    पुण्य तीर्थाचय-पूर्ण-प्रदेशा,
    जननी, जननी, जननी॥
    उत्कळ शूरबर-दर्पित-गेहा,
    अरिकुळ-शोणित-चर्च्चित-देहा,
    बिश्बभूमण्डळ-कृतबर-स्नेहा,
    जननी, जननी, जननी॥
    कबिकुळमौळि सुनन्दन-बन्द्या,
    भुबन बिघोषित-कीर्त्ति अनिन्द्या,
    धन्ये, पुण्ये, चिरशरण्ये,
    जननी, जननी, जननी॥
    हे उत्कल माँ! आपको नमस्कार।
    आप सुन्दर हास और सुन्दर वाणी से युक्त हैं।
    हे माँ, हे माँ, हे माँ !!
    Bath’d art Thou by the sacred Sea,
    Thy shores adorned with trees tall and green,
    Balmy breeze blowing by beauteous streams,
    O! Mother! Mother! Mother!
    Thy body bedeck’d with dense woodlands,
    Arrayed with verdant hills plaited like waves,
    Thy sky ringing with choirs of singing birds,
    O! Mother! Mother! Mother!
    How charming are Thy rich fields of corn !
    Thou art Eye to Erudition enow,
    Sacred Abode to saints and seers,
    O! Mother! Mother! Mother!
    Thy land bejewelled with splendid shrines,
    Richly dress'd art Thou in varied arts,
    Thy limbs studded with sacred sites,
    O! Mother! Mother! Mother!
    Thou Home to the valiant heroes of Utkal,
    Thy frame crimsoned with enemies' blood,
    Prime Darling of the whole universe,
    O! Mother! Mother! Mother!
    Greeted by Thy great sons, the crowning bards,
    Thy untarnished glory proclaimed all around,
    Blessed art Thou, the Holy, the Unfalling Abode,
    I adore Thee, O! Mother! Mother! Mother!

सन्दर्भ

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ओड़िआओड़िया भाषाकाव्यलक्ष्मीकान्त महापात्र

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