भाई वीरसिंह

भाई वीर सिंह (1872-1957 ई.) आधुनिक पंजाबी साहित्य के प्रवर्तक; नाटककार, उपन्यासकार, निबंधलेखक, जीवनीलेखक तथा कवि। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 1956 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।

भाई वीर सिंह
भाई वीरसिंह
भाई वीर सिंह
जन्म05 दिसम्बर 1872
Amritsar, Punjab, British India
मौत10 जून 1957(1957-06-10) (उम्र 84)
Amritsar, Punjab, India
पेशाPoet, short-story writer, song composer, novelist, playwright and essayist.
भाषाPunjabi
राष्ट्रीयताSikh
शिक्षाMatriculation
उच्च शिक्षाAmritsar Church Mission School Bazar Kaserian,Amritsar
काल1891
उल्लेखनीय कामsSundari (1898), Bijay Singh (1899), Satwant Kaur,"Rana Surat Singh" (1905)
खिताबSahitya Academy Award in 1955 and the Padma Bhushan (1956)
जीवनसाथीMata Chatar Kaur
बच्चे2 daughters
वेबसाइट
www.bvsss.org

परिचय

जन्मस्थान अमृतसर (पंजाब), पिता सिख नेता डाक्टर चरणसिंह। आरम्भ में चीफ खालसा दीवान और सिंघसभा आंदोलन की सफलता के लिए अनेक ट्रैक्ट लिखे जिनका उद्देश्य सिखमत की श्रेष्ठता, एकता और हिंदू धर्म से पृथकता का जनता में प्रचार करना था। पंजाबी के निबन्ध साहित्य में इन ट्रैक्टों का महत्वपूर्ण स्थान है। 1894 ई. में आपने 'खालसा ट्रैक्ट सोसाइटी' की नींव रखी। 1899 ई. में साप्ताहिक 'खालसा समाचार' निकाला। इससे पहले 'सुंदरी' (1897 ई.) के प्रकाशन के साथ आप पंजाबी के प्रथम उपन्यासकार के रूप में आ चुके थे। 1899 ई. में आपका दूसरा उपन्यास 'बिजैसिंध' और 1900 ई. में तीसरा उपन्यास 'सतवंत कौर' प्रकाशित हुआ। इनका अंतिम उपन्यास 'बाबा नौध सिंध' बहुत बाद (1921 ई.) में प्रकाश में आया। कला की दृष्टि से यह उपन्यास उच्च कोटि के नहीं कहे जा सकते। सुधारवाद इनका प्रमुख ध्येय है। इनके सिख पात्र धार्मिक, त्यागी और वीर हैं; मुसलमान पात्र क्रूर, निर्दय और भिखारी हैं; तथा हिंदू पात्र प्राय: भीरु, स्वार्थ तथा धोखेबाज हैं। कथानक की दृष्टि से आज ये उपन्यास पाठकों को नीरस और संकीर्ण लगते हैं, किन्तु वर्तमान शती के प्रथम चरण में इनका सिखों में बहुत प्रचार था। इनकी कहानियाँ भी इसी तरह की हैं - अधिकतर का संबंध सिख इतिहास से है। छोटी-छोटी जीवनियों के अतिरिक्त आपने गुरु गोविंदसिंह की जीवनी 'कलगीधर चमत्कार' नाम से और नानक की 'गुरु नानक चमत्कार' नाम से प्रकाशित की। 'राजा लखदातासिंध' आपका एकमात्र नाटक है। आपके गद्य साहित्य के विशेष गुण है- भावों की सुष्ठुता, भाषा का ठेठपन, व्यंजना की तीव्रता, वर्णन की काव्यात्मकता और गठन की साहित्यिकता।

यद्यपि मात्रा में कविता की अपेक्षा आपका गद्य अधिक है, तथापि आप मुख्यतः कवि के रूप में विख्यात हैं। आपकी प्रथम कविता 'राणा सूरतसिंध' सिरखंडी छंद में अतुकान्त कथा है। विषय धार्मिक और कथावस्तु प्रचारात्मक है। कुछ साहित्यिक गुण अवश्य है परन्तु कम। बाद की कविताएँ मुक्तक हैं और इनमें भाई जी साम्प्रदायिक संकीर्णता से मुक्त होते गए हैं। 'लहरां दे हार' (1921), 'प्रीत वीणा', 'कंब दी कलाई', 'कंत महेली' और 'साइयाँ जीओ' आपके प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। इनमें अधिकतर गीत हैं। अन्य छोटी कविताओं में रुबाइयाँ हैं जो पंजाबी साहित्य में विशेष देन के रूप में बहुमान्य हैं। बड़ी कविताओं में 'मरद दा कुत्ता' और 'जीवन की है' आदि हैं, पर इनमें वह रस नहीं है।

कवि का काव्यक्षेत्र प्रकृति के 'सिरजनहार' के बाहर नहीं रहा। वे राजनीति और समाज के झमेलों से दूर भावलोक में रहकर मस्ती और बेहोशी चाहते हैं। उनका कहना है कि जीवन की दुरंगी से दूर एकान्त में मंतव्य की प्राप्ति हो सकती है। उनकी कविताएँ प्रायः छायावादी या रहस्यवादी है। शान्त रस की प्रधानता है। प्रकृति संबंधी कविताओं में कश्मीर के दृश्य बहुत सुंदर बन पाए हैं। कवि पदार्थों का वर्णन यथातथ्य रूप में नहीं करते, अपितु उनमें से संदेश पाने का प्रयत्न करते हैं। कवि ने अंग्रेजी और उर्दू काव्य तथा पंजाबी लोकगीतों से अनेक तत्व ग्रहण करके उन्हें नया रूप प्रदान किया है। कुछ काव्यरूप और छंद भी इन्हीं स्रोतों से अपनाए है, कुछ अपने भी दिए हैं। छंदों की विविधता, विचारों और भावों का संयम और भाषा की प्रभावपूर्णता अपकी कविता के विशेष गुण है।

व्यक्तिगत रूप से आप संगीत और कला के प्रेमी थे। पंजाब विश्वविद्यालय ने आपको डी.लिट्. की उपाधि देकर सम्मानित किया था। भाई जी की रचनाएँ भाषाविभाग (पंजाब) और साहित्य अकादमी (नई दिल्ली) द्वारा पुरस्कृत हुईं। 1956 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान हेतु आपको पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

साहित्यिक योगदान

भाई वीर सिंह ने 1899 में अमृतसर में एक साप्ताहिक अखबार निकाला, जिसका नाम था "खालसा समाचार"। यह आज भी प्रकाशित हो रहा है। उनके उपन्यासों में 17 वीं शताब्दी के गुरु गोविंद सिंह के जीवन पर आधारित उपन्यास कलगीधर चमतहार (1935) और सिक्ख धर्म के संस्थापक की जीवन कथा गुरु नानक चमतहार, दो संस्करण (1936, गुरु नानक की कथाएँ) शामिल हैं। सिक्ख दर्शन, सिक्खों के युद्ध कौशल तथा शौर्य के बारे में है। उनके अन्य उपन्यासों में सुंदरी (1943), बिजय सिंह (1899) और बाबा नौध सिंह (1949) प्रमुख हैं। उन्होने पंजाबी में अबतक अपरिचित छोटी बाहर और मुक्त छंद जैसी विधाओं का प्रयोग किया। उनकी कविता द विजिल (चौकसी) मरणोपरांत प्रकाशित हुयी। पंजाब विश्वविद्यालय ने उनके साहित्यिक योगदान के लिए उन्हे डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। जनवरी 2008 में वारिस शाह फाउंडेशन के द्वारा उनके जीवन काल की रचनाओं का संकलन प्रकाशित किया है।

रचनाएँ

भाई वीरसिंह 
भारी वीर सिंह पर भारत सरकार ने १९७२ में डाक टिकट जारी किया।
    गल्प
  • सुंदरी (1898)
  • बिजे सिंघ (1899)
  • सतवंत कौर - दो भाग (1890 से 1927)
  • सात औखीआं रातां (1919)
  • बाबा नौध सिंघ (1921)
  • सतवंत कौर भाग दूजा (1927)
  • राणा भबोर
    गैर-गल्प (जीवनी)
  • स्री कलगीधर चमतकार (1925)
  • पुरातन जनम साखी (1926)
  • स्री गुरू नानक चमतकार (1928)
  • भाई झंडा जीओ (1933)
  • भाई भूमीआं अते कलिजुग दी साखी (1936)
  • संत गाथा (1938)
  • स्री अशट गुर चमतकार भाग - 1 ते 2 (1952)
  • गुरसिख्ख वाड़ी, (1951)
  • स्री गुरू नानक देव जी दीआं गुर बालम साखीआं (1955)
  • स्री गुरू गोबिंद सिंघ जी दीआं गुर बालम साखीआं (1955)
    टीका
  • सिखां दी भगत माला (1912)
  • प्राचीन पंथ प्रकाश (1914)
  • गंज नामह सटीक (1914)
  • स्री गुरू ग्रंथ कोश (1927)
  • स्री गुरप्रताप सूरज गरंथ सटिप्पण (1927-1935)-टिप्प्पणियों सहित 14 जिल्दों में इस ग्रंथ का प्रकाशन किया।
  • देवी पूजन पड़ताल (1932)
  • पंज ग्रंथी सटीक (1940)
  • कबित्त भाई गुरदास (1940)
  • वारां भाई गुरदास
  • बन जुध्ध
  • साखी पोथी (1950)
    कविता
  • दिल तरंग (1920)
  • त्रेल तुपके (1921)
  • लहिरां दे हार (1921)
  • मटक हुलारे (1922)
  • बिजलीआं दे हार (1927)
  • प्रीत वीणां
  • मेरे सांईआं जीउ (1953)

कंबदी कलाई

    सुपने विच्च तुसीं मिले असानूं
    असां धा गलवकड़ी पाई,
    निरा नूर तुसीं हथ्थ न आए
    साडी कंबदी रही कलाई,
    धा चरनां ते सीस निवाया
    साडे मथ्थे छोह न पाई,
    तुसीं उच्चे असीं नीवें सां
    साडी पेश न गईआ काई।
    फिर लड़ फड़ने नूं उठ्ठ दौड़े
    पर लड़ ओ ‘बिजली-लहिरा’,
    उडदा जांदा पर उह आपणी
    छुह सानूं गया लाई;
    मिट्टी चमक पई इह मोई
    ते तुसीं लूआं विच्च लिशके
    बिजली कूंद गई थररांदी,
    हुण चकाचूंध है छाई!

सन्दर्भ

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