आधुनिककालीन हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास/प्रयोगवाद

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा सन् 1943 में 'तारसप्तक' के संपादन और प्रकाशन के साथ आधुनिक हिंदी कविता में एक नयी प्रवृत्ति का आगमन हुआ जिसे प्रयोगवाद कहा गया। प्रयोगवाद में प्रयुक्त 'प्रयोग' शब्द नए जीवन सत्यों को पाने के उत्कट प्रयास को दर्शाता है। अज्ञेय ने तारसप्तक की भूमिका में प्रयोगशील शब्द का प्रयोग किया है और इसे जीवन-सत्यों को खोजने का माध्यम माना है। उनके अनुसार "प्रयोग अपने आप में साध्य नहीं है, वह साधन है और दोहरा साधन है; क्योंकि एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरे वह उस प्रेषण की क्रिया को और उसके साधनों को जानने का भी साधन है।" दूसरे सप्तक की भूमिका में 'प्रयोगवाद' नामकरण का विरोध करते हुए अज्ञेय ने लिखा है कि प्रयोग का कोई वाद नहीं होता। किसी को प्रयोगवादी कहाना उतना ही निरर्थक है जितना कवितावादी कहना। अतः 'प्रयोगशील' होने और 'प्रयोगवादी' होने में अंतर है। प्रयोगवाद वस्तुतः प्रयोगशीलता का पक्षधर है।

भावात्मक स्तर पर प्रयोगवाद छायावादी काव्य की वायवीयता तथा प्रगतिवादी काव्य की विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के अतिरेक के बरक्स 'अनुभूति की प्रामाणिकता' को रचना के केंद्र में स्थापित करने का आग्रह करता है। शिल्प के स्तर पर यह छायावाद की प्रायः ठहरी हुई अभिव्यंजना प्रणाली तथा प्रगतिवाद की अभिधात्मकता व सपाटबयानी का अतिक्रमण करता है। इस समूची नवीन दृष्टि को, जिसे अज्ञेय ने 'प्रयोगशीलता' कहा था, अज्ञेय के विरोध के बावजूद 'प्रयोगवाद' नाम दे दिया गया और आगे चलकर यही नाम प्रचलित हुआ।